नागपुर के सत्र न्यायाधीश के खिलाफ गंभीर कार्रवाई की मांग — 409 IPC के आरोपी के पक्ष में ‘नो कोअर्सिव स्टेप्स / नो अरेस्ट’ जैसे अवैध आदेश देने पर एफआईआर, सीआईडी जांच, विभागीय कार्रवाई और अवमानना कार्यवाही की मांग।
यह आदेश बिना सरकारी अभियोक्ता और पुलिस को सुने तथा सुप्रीम कोर्ट और बॉम्बे हाईकोर्ट के स्पष्ट दिशानिर्देशों का जानबूझकर उल्लंघन करते हुए पारित किया गया था।
“मुंबई के सत्र न्यायाधीश काज़ी पर 15 लाख की रिश्वत का मामला – ACB ने न्यायाधीश के एजेंट कोर्ट कर्मचारी को रंगेहाथ पकड़ा, न्यायाधीश फ़रार।”
मुंबई उच्च न्यायालय ने हाल ही में दो अन्य सत्र न्यायाधीशों को भी भ्रष्टाचार, गंभीर दुराचार और न्यायिक प्रक्रिया के खुले दुरुपयोग जैसे गंभीर आरोपों के आधार पर पद से बर्खास्त कर दिया है।
- Rama Reddy v. State, 1998 (3) ALD 305 के ऐतिहासिक निर्णय में हाई कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि—यदि किसी आरोपी को जमानत दिलाने के लिए साज़िश रची गई हो, तो उस साज़िश में शामिल सभी व्यक्तियों—सत्र न्यायाधीश, सरकारी वकील और बचाव पक्ष के वकील सहित—पर आपराधिक मामला दर्ज करना और उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करना अनिवार्य है।
इसी प्रकार, हाल ही के एक मामले Roop Singh Parihar v. State, 2025 SCC OnLine MP 7184 में, हाई कोर्ट ने उन सत्र न्यायाधीशों के प्रति बेहद कठोर रुख अपनाया जिन्होंने धारा 409 IPC (जिसकी सज़ा आजीवन कारावास तक हो सकती है) जैसे अत्यंत गंभीर अपराधों में आरोपियों को गैरकानूनी आदेशों के माध्यम से जमानत प्रदान की।
हाई कोर्ट ने ऐसे न्यायाधीशों के विरुद्ध तत्काल कार्रवाई करने के स्पष्ट निर्देश जारी किए हैं।
मुंबई/नागपुर, 24 नवम्बर 2025 :
बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को सौंपी गई एक विस्तृत शिकायत के बाद न्यायपालिका में बड़ा भूचाल आ गया है। नागपुर के प्रभारी ज़िला न्यायाधीश-19 एवं अतिरिक्त सेशंस जज श्री जयवंत सी. यादव पर गंभीर दुरुपयोग, अनियमितता और “प्रथम दृष्टया भ्रष्टाचार” के आरोप लगाए गए हैं।
शिकायत में जज के खिलाफ FIR दर्ज करने, CID जांच, फौजदारी अवमानना, तथा सभी न्यायिक कार्य तत्काल वापस लेने जैसी कठोर कार्यवाही की मांग की गई है।
आरोप है कि जज ने एक सरकारी अधिकारी—जो 409 IPC जैसे आजीवन कारावास तक की सजा वाले गंभीर अपराध में आरोपी है—को जमानत याचिका दाखिल होते ही पहले ही दिन, सरकारी वकील और पुलिस को सुने बिना, पूरी तरह से अवैध ‘नो कोअर्सिव स्टेप्स’ और ‘नो अरेस्ट’ का आदेश दे दिया, जबकि ऐसा आदेश सेशंस कोर्ट के अधिकार-क्षेत्र से बाहर है। इसका अर्थ ही यह है कि—“आरोपी के विरुद्ध कोई कार्रवाई न की जाए।”
बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष एक विस्तृत और गंभीर शिकायत दाख़िल होने के बाद न्यायपालिका में भारी हलचल मच गई है। शिकायत में आरोप लगाया गया है कि नागपुर के प्रभारी जिला न्यायाधीश-19 एवं अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, श्री जयवंत सी. यादव, ने गंभीर न्यायिक दुराचार किया है और उनकी कार्यवाही में “प्राथमिकदृष्टया भ्रष्टाचार के संकेत” स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।
शिकायत में न्यायाधीश के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करने, सीआईडी जांच, आपराधिक अवमान कार्यवाही, तथा सभी न्यायिक कार्य तत्काल वापस लेने जैसी कठोर कार्रवाई की मांग की गई है। आरोप है कि न्यायाधीश ने एक सरकारी अधिकारी—धारा 409 भादंवि (आजीवन कारावास तक की सज़ा वाले गंभीर अपराध) के आरोपी—के अटकपूर्व ज़मानत आवेदन पर पहले ही दिन, वह भी सरकारी अभियोजक और पुलिस का पक्ष सुने बिना, पूरी तरह अवैध “नो कोअर्सिव स्टेप्स” और “नो अरेस्ट” जैसे आदेश दे दिए, जो सत्र न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से परे हैं। यह आदेश वस्तुतः आरोपी को निर्देशित करता है कि उसके विरुद्ध कोई भी कार्रवाई न की जाए।
शिकायत सुप्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता रशीद खान पठान द्वारा दाख़िल
यह शिकायत सुप्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट लिटिगेंट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष श्री रशीद खान पठान द्वारा दाख़िल की गई है।
महाराष्ट्र सहित कई राज्यों की बार एसोसिएशनों ने इस शिकायत को मज़बूत समर्थन देते हुए गंभीर चिंता व्यक्त की है। उनका कहना है—
“ऐसा भ्रष्ट न्यायिक आचरण न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को कलंकित करता है, जनता का विश्वास तोड़ता है, और ईमानदार तथा युवा वकीलों को मानसिक व पेशेवर दोनों स्तरों पर भारी नुकसान पहुँचाता है। यह कानून के राज पर सीधा और गंभीर खतरा उत्पन्न करता है। इस भ्रष्ट व्यवस्था का सबसे बड़ा दुष्परिणाम पीड़ितों, कानून का पालन करने वाले नागरिकों, और न्यायनिष्ठ वकीलों को भुगतना पड़ता है—क्योंकि उनका न्याय पाने का संघर्ष और लंबा, कठोर तथा अनिश्चित हो जाता है।”
बार प्रतिनिधियों ने आगे कहा—
“ऐसे भ्रष्ट न्यायाधीशों के कारण अपराधियों का मनोबल बढ़ता है, उनका गैरकानूनी दुस्साहस और बढ़ जाता है, और जब जवाबदेही का भय समाप्त हो जाता है, तो समाज में असुरक्षा फैलती है। अपराधियों का खुलेआम घूमना समाज में नैतिक पतन, कानून के प्रति उदासीनता और अंततः ‘सामाजिक प्रदूषण’ को जन्म देता है।”
वरिष्ठ बार पदाधिकारियों ने यह भी स्पष्ट चेतावनी दी कि—
“जब तक भ्रष्टाचार के मामलों में आरोपी व्यक्तियों को बचाने के लिए न्यायिक शक्ति का दुरुपयोग करने वाले न्यायाधीशों पर कठोर कार्रवाई नहीं की जाती, तब तक पूरी न्याय प्रणाली की पवित्रता और विश्वसनीयता खतरे में बनी रहेगी।”
सत्र न्यायालय को ‘नो अरेस्ट / नो कोअर्सिव स्टेप्स’ आदेश देने का कोई अधिकार नहीं
अटकपूर्व ज़मानत के प्रावधान (धारा 438 Cr.P.C.) तथा भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की तरतुदों के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित बंधनकारी दिशानिर्देशों के अनुसार कानून बिल्कुल स्पष्ट है कि—
सत्र न्यायालय को ‘नो अरेस्ट’ या ‘नो कोअर्सिव स्टेप्स’ जैसा कोई भी आदेश देने का अधिकार ही नहीं है।
अटकपूर्व ज़मानत याचिका में सत्र अदालत केवल इतना ही आदेश दे सकती है:
“अटक होने की स्थिति में अभियुक्त को ज़मानत पर रिहा किया जाए।”
इसके आगे का कोई भी आदेश —
❌ अवैध है,
❌ अधिकार क्षेत्र से बाहर है, और
❌ न्यायिक शक्ति का दुरुपयोग माना जाता है।
सुप्रीम कोर्ट और बॉम्बे हाईकोर्ट की शर्तों का खुला उल्लंघन
बॉम्बे हाईकोर्ट ने Abhijit Vivekanand Patil v. State of Maharashtra, 2023 BHC-AS 17842, सहित कई निर्णयों में यह कठोर सिद्धांत स्थापित किया है कि—
धारा 409 IPC जैसे ‘आजीवन कारावास’ की सज़ा वाले गंभीर अपराधों में अभियुक्त को सीधे या आसानी से अग्रिम ज़मानत नहीं दी जा सकती।
कानून बिल्कुल स्पष्ट रूप से कहता है कि:
- जब तक अदालत यह स्पष्ट, तार्किक और कारणसहित निष्कर्ष न दर्ज करे कि धारा 409 लागू नहीं होती, अपराध की गंभीरता, अग्रिम ज़मानत नहीं दी जा सकती।
- ऐसे मामलों में कस्टोडियल इंटरोगेशन आवश्यक होता है।
- अपराध की गंभीरता, अभियुक्त की भूमिका और उपलब्ध साक्ष्यों का सख़्त परीक्षण अनिवार्य है।
परंतु शिकायत के अनुसार— इनमें से एक भी अनिवार्य शर्त का पालन नहीं किया गया
शिकायत में कहा गया है कि आरोपी न्यायाधीश ने—
- अपराध में अभियुक्त की भूमिका,
- उपलब्ध साक्ष्य,
- अपराध की गंभीरता,
- या धारा 409 लागू होती है या नहीं,
इनमें से किसी भी विषय पर एक भी कारण दर्ज नहीं किया।
इसके विपरीत, उन्होंने—
- सरकारी अभियोक्ता और पुलिस का पक्ष सुने बिना,
- अत्यधिक जल्दबाज़ी में,
- सभी न्यायिक मानदंडों को नज़रअंदाज़ करते हुए,
अभियुक्त को विशेष और अधिकारविहीन संरक्षण दे दिया, जो पूरी तरह अवैध और अधिकार-क्षेत्र से बाहर था।
409 भादंवि के गंभीर मामले में आरोपी — शासकीय कर्मचारी
जिस व्यक्ति को यह अवैध संरक्षण दिया गया है, वह जिला आरटीओ अधिकारी विजय चव्हाण हैं। उनके विरुद्ध धारा 409 भादंवि के तहत — शासकीय कर्मचारी द्वारा विश्वासघात — का अत्यंत गंभीर अपराध दर्ज है, जिसकी सजा आजीवन कारावास तक हो सकती है।
सभी सह-साजिशकर्ताओं को आरोपी बनाने की मांग
तक्रार में यह स्पष्ट रूप से मांग की गई है कि— आरोपी विजय चव्हाण, उनके वकील, तथा इस अवैध आदेश को प्राप्त करने की साजिश में शामिल सभी व्यक्तियों को सह-अभियुक्त बनाया जाए और उनके विरुद्ध फौजदारी अपराध दर्ज किया जाए।
महत्वपूर्ण निर्णय: K. Rama Reddy v. State (1998)
- Rama Reddy v. State, 1998 (3) ALD 305 के ऐतिहासिक निर्णय में हाईकोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि— यदि किसी आरोपी को जमानत दिलाने के लिए साजिश रची गई हो, तो उस साजिश में शामिल—
- सत्र न्यायाधीश,
- सरकारी वकील, तथा
- आरोपी के वकील
सभी के विरुद्ध आपराधिक मुकदमा दर्ज करना अनिवार्य है। उस मामले में कोर्ट ने सीधे-सीधे सभी के विरुद्ध फौजदारी कार्यवाही शुरू करने का आदेश दिया था।
नवीनतम मिसालें: 409 IPC मामलों में अवैध ज़मानत पर कठोर रुख
हाल ही के एक प्रकरण में भी—धारा 409 जैसे आजीवन कारावास योग्य गंभीर अपराध में—सत्र न्यायाधीश द्वारा अवैध और अधिकार-विहीन आदेशों से आरोपी को ज़मानत देने की घटना पर हाईकोर्ट ने कठोर टिप्पणी की और तुरंत कार्रवाई के आदेश दिए।
Roop Singh Parihar v. State, 2025 SCC OnLine MP 7184
इस अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय में हाईकोर्ट ने पाया कि एक सत्र न्यायाधीश ने—
- न्यायिक अधिकार का दुरुपयोग किया,
- धारा 409 जैसे गंभीर अपराध में
- आरोपी को जमानत दिलाने के लिए सीधी मदद,
- सहकार, और
- अनुचित लाभ प्रदान किया।
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट निर्देश दिया:
“इस आदेश की प्रतिलिपि प्रिंसिपल रजिस्ट्रार (Vigilance) को भेजी जाए और संबंधित प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के विरुद्ध चौकशी एवं शिस्तभंग कार्रवाई आरंभ करने के लिए मामला माननीय मुख्य न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया जाए।”
बेकायदेशीर संरक्षण — भ्रष्ट इरादे का स्पष्ट संकेत
तक्रार में यह गंभीर आरोप लगाया गया है कि 409 भादंवि जैसे आजीवन कारावास तक की सजा वाले अत्यंत गंभीर अपराध में, वह भी सत्र न्यायालय की अधिकार-सीमा से बाहर जाकर, राज्य पक्ष को सुने बिना, और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित अनिवार्य कानूनी मानकों की खुली अवहेलना करते हुए संरक्षण प्रदान करना—यह सब स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि संबंधित न्यायाधीश ने:
- भ्रष्ट मानसिकता से कार्य किया,
- न्यायिक पद का दुरुपयोग किया,
- जांच प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न की, तथा
- आरोपी को अवैध व अनुचित लाभ प्रदान किया।
न्यायाधीश का आचरण दंडनीय — सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट पूर्वनिर्णय
तक्रार में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय और बॉम्बे हाईकोर्ट के कई बंधनकारी निर्णयों के अनुसार यदि कोई न्यायाधीश:
- कानून की स्पष्ट प्रावधानों के विपरीत जाकर,
- जानबूझकर लागू न्यायिक निर्णयों को नज़रअंदाज़ कर,
• आरोपी को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से आदेश पारित करता है,
तो उस न्यायाधीश के विरुद्ध निम्नानुसार फौजदारी (Criminal) कार्रवाई की जा सकती है:
- IPC की धारा 166, 218, 219, 409,
- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, धारा 7-A,
- अवमान अधिनियम 1971, धारा 2(b), 12, 16
तक्रार में यह भी उल्लेख है कि ऐसे गंभीर दुराचार में लिप्त न्यायाधीशों को कई मामलों में—निलंबन, पदच्युति, और सेवा से बर्खास्तगी जैसी कठोर सज़ाएँ दी गई हैं।
सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय — भ्रष्ट इरादे का प्रमाण आदेश में ही निहित
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निम्न निर्णयों में अत्यंत स्पष्ट रूप से सिद्धांत स्थापित किया है:
- R. Parekh v. High Court of Gujarat (2016) 14 SCC 1
- Noida Entrepreneurs Association v. NOIDA (2011) 6 SCC 508
- Ramesh Chandra v. State, MANU/UP/0708/2007
इन निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि:
यदि कोई न्यायाधीश कानून की स्पष्ट तरतुदों को दरकिनार करते हुए, बिना किसी उचित कारण के, अत्यधिक जल्दबाज़ी में, या अधिकार-सीमा से बाहर जाकर कोई आदेश पारित करता है—तो वही आदेश उस न्यायाधीश के भ्रष्ट इरादे का प्रत्यक्ष प्रमाण होता है।
ऐसी स्थिति में:
- अनावश्यक जल्दबाज़ी,
- कानून का उल्लंघन,
- अधिकार का दुरुपयोग,
- आरोपी को अवैध लाभ पहुँचाने के प्रयास,
ये सभी तथ्य स्वयं ही भ्रष्टाचार, दुर्भावना (mala fides) और दुरुपयोग सिद्ध करने के लिए पर्याप्त माने जाते हैं।
अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं — सुप्रीम कोर्ट का दृढ़ मत
सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि:
ऐसे आदेश पारित करने वाले न्यायाधीश के विरुद्ध बर्खास्तगी, निलंबन या अन्य कठोर कार्रवाई करने हेतु अलग से अतिरिक्त प्रमाण जुटाने की आवश्यकता नहीं होती—उसका आचरण और आदेश ही दोष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त होते हैं।
“मुंबई के सत्र न्यायाधीश काज़ी पर 15 लाख की रिश्वत का मामला – ACB ने न्यायाधीश के एजेंट कोर्ट कर्मचारी को रंगेहाथ पकड़ा, न्यायाधीश फ़रार।”
मुंबई के सत्र न्यायाधीश काज़ी के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक विभाग (ACB) ने ₹15 लाख की रिश्वत मांगने के गंभीर आरोप पर फौजदारी मामला दर्ज किया है। आरोप है कि न्यायाधीश काज़ी ने एक लंबित मामले में आरोपी को अनुकूल न्यायिक आदेश दिलाने के बदले यह रिश्वत मांगी थी।
रकम न्यायाधीश काज़ी स्वयं नहीं ले रहे थे, बल्कि उनके विश्वस्त लिपिक के माध्यम से ली जा रही थी। ACB ने लिपिक को रिश्वत लेते हुए रंगेहाथ गिरफ्तार किया, जिसके बाद न्यायालयीन महकमे में जबरदस्त हलचल मच गई।
अधिकृत जानकारी के अनुसार, घटना के बाद न्यायाधीश काज़ी फरार हो गए हैं और उन्हें पकड़ने के लिए ACB तथा अन्य जांच एजेंसियाँ सक्रिय रूप से प्रयास कर रही हैं।
यह मामला न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार का बेहद गंभीर उदाहरण माना जा रहा है, जिससे जनता का न्याय व्यवस्था पर विश्वास हिलने की गहरी चिंता व्यक्त की जा रही है।
दो और सत्र न्यायाधीश बर्खास्त – न्यायिक व्यवस्था की शुचिता पर प्रश्न
इसी बीच, उच्च न्यायालय ने हाल ही में दो अन्य सत्र न्यायाधीशों को भी भ्रष्टाचार, गंभीर दुराचार और न्यायिक प्रक्रिया के खुले दुरुपयोग जैसे आरोपों पर बर्खास्त किया है।
न्यायाधीश काज़ी पर मामला दर्ज होना, उसके बाद उनका फरार होना, तथा अन्य दो सत्र न्यायाधीशों की बर्खास्तगी — ये क्रमिक और चिंताजनक घटनाएँ एक साथ सामने आने से न्यायिक व्यवस्था की पारदर्शिता, ईमानदारी और नैतिकता पर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं।
इन घटनाओं ने देशभर में न्यायिक जवाबदेही, न्यायाधीशों पर नियंत्रण-तंत्र, तथा भ्रष्टाचार-निरोधी जांच की अनिवार्यता को लेकर विस्तृत और गंभीर बहस छेड़ दी है।