सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला – वकीलों और याचिकाकर्ताओं पर हो रहे अन्याय व भेदभाव को कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम
अब जजों और अधिकारियों की मनमानी पर लगेगा अंकुश!
देशभर के बार एसोसिएशन और लिटिगेंट्स संगठन ने सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के. वी. विश्वनाथन और जस्टिस दीपांकर दत्ता के प्रति गहरी कृतज्ञता और सम्मान व्यक्त किया है।
सुप्रीम कोर्ट की सभी जजों और अधिकारियों को स्पष्ट चेतावनी
“अपने मन से कोई भी केस लॉ या मुद्दा आदेश में शामिल न करें। किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध आदेश पारित करने से पहले उसका पक्ष सुनना अनिवार्य है। कोई भी न्यायालय अपनी मनमानी या बिना सुने किसी विषय पर आधारित निर्णय नहीं दे सकता। किसी व्यक्ति के चरित्र या आचरण पर प्रतिकूल टिप्पणी करने से पहले उसे अपनी बात रखने का अवसर देना आवश्यक है। अन्यथा ऐसे आदेश कानूनन निरस्त माने जाएंगे।”
यह सख्त संदेश सुप्रीम कोर्ट ने सभी न्यायाधीशों, प्रशासकीय अधिकारियों और न्यायिक तंत्र से जुड़े लोगों को दिया है ताकि भविष्य में कोई भी अदालत प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांतों का उल्लंघन कर एकतरफा या मनमाने आदेश जारी न कर सके।
यह निर्णय न्यायपालिका के लिए एक नई जवाबदेही और सीमा निर्धारित करता है —
“न्याय देना कोई अधिकार नहीं बल्कि एक पवित्र कर्तव्य है — और वह भी निष्पक्षता से, दोनों पक्षों को सुनकर।”
नई दिल्ली / मुंबई | 7 अक्टूबर 2025
सुप्रीम कोर्ट ने न्याय प्रणाली की नींव को और मजबूत करने वाला एक ऐतिहासिक और सुधारात्मक फैसला दिया है। जस्टिस के. वी. विश्वनाथन और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ द्वारा दिए गए इस आदेश ने न्यायपालिका में व्याप्त मनमानी, पक्षपात और बिना सुने दिए जाने वाले आदेशों पर कड़ा अंकुश लगाया है।
देशभर के वकीलों, न्यायप्रेमी नागरिकों और विभिन्न बार एसोसिएशनों ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए इसे “न्याय क्रांति की शुरुआत” बताया है।
बॉम्बे हाईकोर्ट के 17 सितंबर 2025 को पारित आदेश पर सीधा प्रभाव
कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यह सुप्रीम कोर्ट का निर्णय बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा 17 सितंबर 2025 को पारित आदेश पर सीधा प्रभाव डालता है और उस आदेश को विधिक रूप से अवैध ठहराता है।
उस आदेश में मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रशेखर की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 15 वकीलों को बिना कोई नोटिस दिए और उनका पक्ष सुने बिना न्यायालय की अवमानना और व्यावसायिक दुर्व्यवहार का दोषी ठहराया था।
और भी गंभीर बात यह थी कि अदालत ने अपने आदेश में स्वयं से कई केस लॉ (न्यायिक निर्णय) उद्धृत किए थे, जिन्हें ना तो याचिकाकर्ताओं ने प्रस्तुत किया था और ना ही बहस में चर्चा हुई थी।
इससे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का खुला उल्लंघन हुआ और पूरी कार्यवाही पक्षपातपूर्ण, असंवैधानिक तथा न्याय के विरुद्ध मानी गई।
कानूनी विशेषज्ञों की राय और परिणाम
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि इस सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद 17 सितंबर 2025 का आदेश स्वतः ही अवैध हो गया है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है —
“किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध प्रतिकूल आदेश पारित करने से पहले यदि उसे अपनी बात रखने का अवसर नहीं दिया गया, तो वह आदेश ‘शून्य और अमान्य’ माना जाएगा।”
विशेषज्ञों के अनुसार, अब उन 15 वकीलों को आदेश वापस लेने हेतु याचिका दायर करने और अपने संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए क्षतिपूर्ति की मांग करने का पूर्ण कानूनी अधिकार प्राप्त हुआ है।
देशभर की कई बार एसोसिएशनों ने इन वकीलों को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा की है।
देशभर से स्वागत – न्यायपालिका पर बढ़ा विश्वास
देशभर के वरिष्ठ अधिवक्ताओं, वकीलों और नागरिक संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का जोरदार स्वागत किया है।
इंडियन बार एसोसिएशन, सुप्रीम कोर्ट लॉयर्स एसोसिएशन, और हाईकोर्ट लिटिगेंट्स एसोसिएशन ने संयुक्त वक्तव्य जारी कर कहा —
“यह फैसला न्यायपालिका में जवाबदेही, पारदर्शिता और नागरिकों की गरिमा को संरक्षित करने वाला है। न्यायाधीश ईश्वर नहीं हैं; वे भी कानून के अधीन हैं — यह सिद्धांत इस निर्णय से और मजबूत हुआ है।”
अधिवक्ता निलेश ओझा का बयान
इंडियन बार एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष अधिवक्ता निलेश ओझा ने कहा —
“लंबे समय से कई लोगों ने भय, अज्ञान या संसाधनों की कमी के कारण न्यायिक मनमानी को सहा। यह फैसला उस भय के अंत की घोषणा है। यह न्यायिक क्रांति की शुरुआत है — और इतिहास इसे सत्य और जवाबदेही के नए युग की नींव के रूप में याद रखेगा।”
उन्होंने आगे कहा —
“यह निर्णय वकीलों और आम नागरिकों दोनों को समान शक्ति देता है कि वे न्यायिक दुराचार के खिलाफ निर्भीक होकर आवाज उठा सकें और मनमाने न्यायिक आदेशों को कानूनी रूप से चुनौती दे सकें।”
कानूनी समुदाय का समर्थन
अधिवक्ता ईश्वरलाल अग्रवाल, विजय कुरले, पार्थो सरकार, तनवीर निज़ाम, विवेक रामटेके, निकी पोकर, अभिषेक मिश्रा, शिव मिश्रा, विकास पवार, तथा सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट लिटिगेंट्स एसोसिएशनों ने भी न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन, दीपांकर दत्ता, और अमित बोरकर की साहसी और न्यायसंगत भूमिका की प्रशंसा की।
उन्होंने कहा कि इन न्यायमूर्तियों के निर्णय न्यायाधीशों की शक्ति पर नियंत्रण रखते हुए नागरिकों के सम्मान और अधिकारों की रक्षा करते हैं, जिससे न्यायिक व्यवस्था पर जनता का विश्वास और सुदृढ़ होगा।
निष्कर्ष
यह फैसला सिर्फ एक प्रकरण का निर्णय नहीं, बल्कि न्याय प्रणाली में सुधार, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व का मील का पत्थर है।
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर स्पष्ट कहा है —
“न्याय केवल आदेश देने का माध्यम नहीं, बल्कि हर नागरिक का मौलिक अधिकार है।”
इस निर्णय ने पूरे देश के न्यायाधीशों, अधिकारियों और न्यायालयों को यह स्पष्ट संदेश दिया है कि —”मनमानी, पक्षपात और बिना सुने दिए गए आदेश अब स्वीकार्य नहीं होंगे।”
यह फैसला भारतीय न्यायपालिका के नए युग की शुरुआत साबित हो सकता है —जहां न्यायालय सिर्फ निर्णय नहीं देगा, बल्कि सच्चा न्याय प्रदान करेगा।
न्यायिक मनमानी पर अंकुश
अधिवक्ताओं ने इंगित किया है कि पिछले कुछ वर्षों में कुछ न्यायिक अधिकारियों ने अपने विवेकाधिकार का दुरुपयोग करते हुए ऐसे निर्णय दिए जिनमें उन्होंने उन निर्णयों या बिंदुओं पर भरोसा किया जो न तो पक्षकारों ने प्रस्तुत किए और न ही बहस में उठाए गए।
इन मनमाने और अन्यायपूर्ण आदेशों से वकीलों और याचिकाकर्ताओं को भारी हानि हुई।
सुप्रीम कोर्ट की विजय शेखर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, (2004) 4 SCC 666 में फुल बेंच ने स्पष्ट रूप से कहा था कि इस प्रकार का आचरण “फ्रॉड ऑन पावर” (Fraud on Power) है, और इस तरह से पारित किए गए आदेश शून्य और अमान्य (null and void) होते हैं।
कई उच्च न्यायालयों ने इस प्रवृत्ति की निंदा करते हुए ऐसे आचरण को “घोर न्यायिक बेईमानी” और “भ्रष्टाचार” कहा है, और ऐसे न्यायाधीशों को निलंबन या बर्खास्तगी के योग्य बताया है।
न्यायिक जवाबदेही को मजबूती
समा अरुणा बनाम स्टेट ऑफ तेलंगाना, (2018) 12 SCC 150 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि न्यायाधीश, अर्ध-न्यायिक प्राधिकारी और कार्यपालिका के अधिकारी, यदि पक्षपात, दुर्भावना या अनुचित उद्देश्य से कार्य करते हैं, तो वे “लीगल मैलिस” (Legal Malice) के दोषी हैं।
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी भी दुर्भावनापूर्ण या शक्ति के दुरुपयोग से दिया गया आदेश न्यायिक संरक्षण के योग्य नहीं होता और कानून की दृष्टि में शून्य माना जाता है।
बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अमित बोर्कर ने अपने ऐतिहासिक निर्णय हरीश अरोरा बनाम रजिस्ट्रार, कोऑपरेटिव सोसायटीज़, 2025 SCC OnLine Bom 2833 में इसी सिद्धांत को लागू करते हुए एक न्यायिक अधिकारी के विरुद्ध “कानूनी दुर्भावना” (Legal Malice) को सिद्ध कर प्रशासनिक जांच और विभागीय कार्यवाही का आदेश दिया।
यह निर्णय न्यायिक साहस और ईमानदारी का उदाहरण माना जा रहा है, और न्यायिक जवाबदेही की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हुआ है।
न्यायिक बेईमानी और अवमानना
कई प्रामाणिक निर्णयों में यह घोषित किया गया है कि जो न्यायाधीश, अर्ध-न्यायिक अधिकारी या कार्यकारी अधिकारी पक्षपातपूर्ण या विकृत आदेश देते हैं, वे “घोर न्यायिक बेईमानी और भ्रष्टाचार” के दोषी हैं।
ऐसे अधिकारी सिविल कंटेम्प्ट (नागरिक अवमानना) के भी दोषी माने गए हैं — धारा 2(बी) सहपठित धारा 12, अवमानना न्यायालय अधिनियम 1971 के तहत — क्योंकि वे संविधानिक और वैधानिक आदेशों का जानबूझकर उल्लंघन करते हैं।
प्रमुख निर्णयों में शामिल हैं:
• Kamisetty Pedda Venkata Subbamma v. Chinna Kummagandla Venkataiah, 2004 SCC OnLine AP 1009
• Muzaffar Hussain v. State, 2022 SCC OnLine SC 567
• Shrirang Yadavrao Waghmare v. State of Maharashtra, (2019) 9 SCC 144
• R.R. Parekh v. High Court of Gujarat, (2016) 14 SCC 1
• Smt. Prabha Sharma v. Sunil Goyal, (2017) 11 SCC 77
• Legrand Pvt. Ltd., 2007 (6) Mh.L.J. 146
• Govind Mehta v. State of Bihar, (1971) 3 SCC 329
• K. Rama Reddy v. State, 1998 (3) ALD 305
• Raman Lal v. State, 2001 Cri LJ 800
• Jagat Jagdishchandra Patel v. State of Gujarat, 2016 SCC OnLine Guj 4517
• Superintendent of Central Excise v. Somabhai Ranchhodhbhai Patel, AIR 2001 SC 1975
• Umesh Chandra v. State of Uttar Pradesh, 2006 (5) AWC 4519 (All)
• Prominent Hotels v. NDMC, 2015 SCC OnLine Del 11910
• Re: M.P. Dwivedi, (1996) 4 SCC 152
• Priya Gupta v. Additional Secretary, (2013) 11 SCC 404
• State Bank of Travancore v. Mathew K.C., (2018) 3 SCC 85
न्यायिक विकृति और शक्ति का दुरुपयोग
Associates Builders v. Delhi Development Authority, (2015) 3 SCC 49 और Prem Kaur v. State of Punjab, (2013) 14 SCC 653 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि कोई न्यायिक या प्रशासनिक आदेश रिकॉर्ड, कानून या तर्क के विपरीत दिया गया हो, तो वह आदेश पर्वर्स (Perverse) है और ऐसा आचरण शक्ति का दुरुपयोग और न्याय का हनन है।
न्यायालय ने टिप्पणी की कि न्यायिक विकृति और मनमानी कानून के शासन की नींव को कमजोर करती है, और ऐसे आचरण को न्यायिक प्रतिरक्षा (Judicial Immunity) के नाम पर संरक्षण नहीं दिया जा सकता।
दोषी न्यायाधीशों और अधिकारियों की आपराधिक जिम्मेदारी
भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत, कानूनी दुर्भावना, शक्ति का दुरुपयोग, या जानबूझकर कानून का उल्लंघन करने वाले न्यायाधीश या अधिकारी आपराधिक रूप से उत्तरदायी होते हैं।
धारा 166, 218, 219, और 220 IPC के तहत, ऐसे लोक सेवकों (जजों सहित) को सात वर्ष तक की कैद की सजा का प्रावधान है, यदि वे जानबूझकर अपने कर्तव्य का उल्लंघन करते हैं या कानून के विपरीत कार्य करते हैं।
आम नागरिक को सशक्त बनाना
सुप्रीम कोर्ट का नवीनतम निर्णय, जब हरीश अरोरा और विजय शेखर के मामलों के साथ पढ़ा जाता है, तो यह सामान्य नागरिकों और अधिवक्ताओं को न्याय प्राप्त करने और न्यायिक दुराचार को उजागर करने की शक्ति देता है। यह ऐतिहासिक निर्णय न्याय प्रणाली में जनता का विश्वास बहाल करने की दिशा में एक बड़ा कदम है।
यह सुनिश्चित करता है कि हर वकील और याचिकाकर्ता को निष्पक्षता, गरिमा और विधिक प्रक्रिया के अनुसार न्याय मिले।
यह फैसला कानून के शासन की सर्वोच्चता को पुनः स्थापित करता है, और न्यायपालिका में पारदर्शिता, जिम्मेदारी और नैतिक आचरण के नए युग का शुभारंभ करता है।