सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय :
“यदि सरकारी वकील गलत कानून प्रस्तुत करे, प्रासंगिक मिसालों को जानबूझकर छुपाए, अथवा न्यायालय को भ्रामक रूप से प्रभावित कर कोई अवैध आदेश प्राप्त कर ले—और उसके परिणामस्वरूप किसी नागरिक को क्षति पहुँचे—तो उस क्षति की भरपाई करना राज्य का विधिक एवं संवैधानिक उत्तरदायित्व है।” “इस सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने Mahabir v. State of Haryana, 2025 SCC OnLine SC 184 मामले में ₹5–5 लाख हर्जाने का आदेश दिया।”
गलत कानून बताकर, सही मिसालें छुपाकर तथा गरीब नागरिकों के अधिकारों का दमन करके अवैध आदेश प्राप्त करने की वकीलों की अनैतिक व गैरकानूनी प्रवृत्ति पर सुप्रीम कोर्ट का कड़ा प्रहार।
जस्टिस जे. बी. परडिवाला का एक और ऐतिहासिक निर्णय
“इससे पूर्व भी, न्यायमूर्ति पारदीवाला ने उच्च न्यायालय के एक जज की बौद्धिक क्षमता पर तीखी टिप्पणी करते हुए मुख्य न्यायाधीश को निर्देश दिया था कि संबंधित हाई कोर्ट जज को किसी भी प्रकार के आपराधिक (Criminal) मामलों का कार्य आवंटित न किया जाए।” [‘Shikhar Chemicals v. State of U.P., 2025 SCC OnLine SC 1653 ]
अवमानना (Contempt) मामलों में यह सिद्धांत पूर्व से स्थापित है कि यदि सरकारी वकील किसी निर्दोष व्यक्ति के विरुद्ध गलत तरीके से कोर्ट-अवमानना की कार्यवाही करवाए, या बाद में उसकी वैध अपील का विरोध करके न्याय मिलने में देरी उत्पन्न करे—तो ऐसी परिस्थिति में राज्य पर यह बाध्यता होती है कि वह पीड़ित व्यक्ति को हर्जाना/मुआवज़ा प्रदान करे।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अनेक ऐतिहासिक निर्णयों में यह भी स्पष्ट निर्देश दिया है कि सरकार द्वारा दिया गया यह मुआवज़ा अंतिम नहीं माना जाएगा, बल्कि इसकी वसूली उन दोषी व्यक्तियों—जैसे कि संबंधित सरकारी वकील, प्रशासनिक अधिकारी या न्यायिक अधिकारी—से की जाएगी। अर्थात State pays first, recovery from the wrongdoer later का सिद्धांत लागू होता है।
[ Lucknow Development Authority v. M.K. Gupta, AIR 1994 SC 787, Parashuram Detaram Shamdasani v. King-Emperor, [1945] A.C. 264, Walmik Bobde v. State of Maharashtra, 2001 ALL MR (Cri), S. Nambi Narayanan v. Siby Mathews & Ors., (2018) 10 SCC 804 ; McLeod v. St. Aubyn, (1899) AC 549; Ramesh Lawrence Maharaj v. Attorney-General of Trinidad and Tobago, (1978) 2 WLR 902; Directions in the Matter of Demolition of Structures, In Re, (2025) 5 SCC 1; Bharat Devdan Salvi v. State of Maharashtra, 2016 SCC OnLine Bom 42; and Mehmood Nayyar Azam v. State of Chhattisgarh, (2012) 8 SCC 1]
न्यायिक क्रांति के लिए संघर्षरत इंडियन बार एसोसिएशन के अध्यक्ष, अधिवक्ता निलेश ओझा ने फैसले का स्वागत करते हुए इसे इतिहास का निर्णायक मोड़ बताया। उन्होंने कहा—
“अब ‘अमीर को छूट और गरीब को सज़ा’ वाले पुराने, अन्यायपूर्ण और असंतुलित सिस्टम का अंत होने जा रहा है। देश में जवाबदेही का एक नया युग शुरू हो चुका है। जो वकील गलत कानून पेश करते हैं, सत्य और मिसालें छुपाकर अदालत को गुमराह करते हैं—उनका ‘खेल’ अब समाप्ति की ओर है। बहुत जल्द भारत में वास्तविक Rule of Law स्थापित होगा, जहाँ कानून चलेगा—न कि किसी पद, प्रतिष्ठा या प्रभाव का दबदबा।”
उन्होंने आगे कहा—
“यह भारत की न्याय व्यवस्था का वह परिवर्तनकारी दौर है, जहाँ आम नागरिक की आवाज़ एक बार फिर मुकम्मल रूप से उठ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट संदेश दिया है कि चाहे आरोपी सरकारी वकील हो, पुलिस अधिकारी हो, मंत्री-नेता हो, या ऊँचे पद पर बैठा कोई न्यायाधीश—कानून से ऊपर कोई नहीं। जवाबदेही अब अनिवार्य होगी, और कानून का राज वास्तविक रूप से स्थापित हो रहा है।”
“न्याय व्यवस्था में अब केवल कानून का शासन चलेगा—न किसी वकील का अहंकार, न किसी अधिकारी या सत्ता का प्रभाव। आज यह स्पष्ट हो चुका है कि अदालत में सर्वोपरि है—सच, न्याय और संविधान।”
“संविधान के तहत ‘कानून के आगे सब समान’—इसी सिद्धांत को अधिवक्ता निलेश ओझा ने बेहद सरल और आम आदमी की भाषा में राष्ट्रीय चेतना का रूप दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि न्याय चेहरे, पद, प्रभाव, जाति, धर्म, धन या पहचान देखकर नहीं— बल्कि सच और कानून के आधार पर होना चाहिए। उनका स्पष्ट संदेश — ‘कौन सही है नहीं, क्या सही है—यह देखो’ — आज देशभर में न्यायिक जागरूकता का नया मार्गदर्शक सिद्धांत बन चुका है।
यह अब कोई आंदोलन भर नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय मनोवृत्ति के रूप में विकसित हो चुका है।”
उन्होंने कहा कि— किसी व्यक्ति का समर्थन उसकी जाति, धर्म, पैसा, पद, ताकत
या किसी अन्य आधार पर नहीं होना चाहिए। न्याय केवल कर्म और सत्य के आधार पर होना चाहिए, तभी समाज में स्थायी शांति स्थापित हो सकती है।
क्योंकि— न्याय से ही शांति आती है, और अन्याय से आक्रोश, अराजकता और अंततः क्रांति जन्म लेती है।
आज यह आंदोलन एक राष्ट्रीय शक्ति बन चुका है . इस फैसले को इंडियन बार एसोसिएशन और अन्य संगठनों द्वारा 20-साल पुरानी तपस्या का फल माना जा रहा है
पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट तथा विभिन्न हाईकोर्टों की कई महत्वपूर्ण पीठों ने ऐसे आदेश पारित किए हैं, जिनसे देश की न्याय प्रणाली अधिक सुदृढ़ होने की दिशा में आगे बढ़ रही है और आम नागरिक के लिए न्याय तक पहुँच आसान हो रही है। इन आदेशों में दोषी अधिकारियों से लेकर न्यायाधीशों तक के विरुद्ध भी कठोर रुख अपनाते हुए आवश्यक कार्रवाई का निर्देश दिया गया है।
इन आदेशों और विकासक्रम का विस्तृत विवरण पूर्व प्रकाशित लेखों में दिया जा चुका है।
New Delhi :-
सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा ऐतिहासिक फैसला सुनाया है जो पूरे देश की न्याय व्यवस्था को हिला देगा और सरकारी वकीलों की लापरवाही पर कड़ी लगाम लगाएगा।
अगर सरकारी वकील अदालत में गलत कानून बताएंगे, सही सुप्रीम कोर्ट के फैसले छुपाएंगे, या गलत दिशा देंगे— तो अब इसकी सज़ा राज्य सरकार को भुगतनी होगी।
जस्टिस जे. बी. परडिवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने एक और ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए यह स्पष्ट संदेश दिया है कि अब गलत कानून बताने वाले, झूठी या भ्रामक दलीलें देने वाले, तथा बाध्यकारी मिसालें (Binding Precedents) छुपाने वाले—चाहे वे सरकारी वकील हों या बड़े नामचीन अधिवक्ता—किसी भी हाल में जवाबदेही से नहीं बच पाएंगे।
इस फैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यदि किसी सरकारी वकील की लापरवाही, अज्ञानता, भ्रष्ट आचरण या गलत कानून बताने की वजह से किसी आम नागरिक के अधिकारों का हनन होता है, या कोई निर्दोष व्यक्ति जेल जाता है, तो उसकी सीधी ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की होगी और राज्य को नुकसान की भरपाई (मुआवज़ा) देनी पड़ेगी।
अदालत ने यह भी कहा कि:
· अदालत को सही कानून बताना सरकारी वकील का संवैधानिक और नैतिक दायित्व है।
· यदि वह यह कर्तव्य निभाने में असफल रहता है, तो उसका परिणाम नागरिक को नहीं भुगतना पड़ेगा।
· गलत क़ानूनी सलाह, गलत बहस या सही मिसालें छुपाने के कारण यदि नागरिक की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा या अधिकार प्रभावित होते हैं, तो राज्य सरकार पर प्रतिकर तथा हर्जाना देने की बाध्यता होगी।
यह निर्णय पूरे देश के लिए एक क्रांतिकारी मिसाल स्थापित करता है .
“सरकारी वकीलों एवं वरिष्ठ अधिवक्ताओं द्वारा अपने पद एवं उत्तरदायित्वों का समुचित निर्वहन न करने, प्रभावी सहायता न देने तथा न्यायालय के समक्ष कानून की सटीक स्थिति प्रस्तुत करने में विफल रहने पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कड़ी फटकार लगाई थी। [ Sovaran Singh Prajapati v. State of U.P., 2025 SCC OnLine SC 351 ]
20 वर्ष पुरानी मुहिम — आज जनआंदोलन बनकर खड़ी हुई
न्यायिक जागरूकता की लहर का बीज लगभग 20 वर्ष पहले इंडियन बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अधिवक्ता निलेश ओझा ने अपने न्यायप्रिय साथियों के साथ बोया था। इसी संकल्प से उन्होंने वर्ष 2006 में “मानव अधिकार सुरक्षा परिषद” नामक संगठन की स्थापना की—एक ऐसा आंदोलन, जिसका उद्देश्य था:
· अमीर–गरीब का फर्क मिटाकर, सबके लिए समान न्याय की लड़ाई,
· न्याय व्यवस्था में छिपे सच को जनता तक पहुँचाना,
· गलत कानून बताने वाले वकीलों और भ्रष्ट सरकारी वकीलों की जवाबदेही तय कराना,
· और आम नागरिक को यह समझाना कि कानून से ऊपर कोई नहीं — न वकील, न अधिकारी, न न्यायाधीश।
आज इस आंदोलन ने आकार बदल कर एक राष्ट्रीय जनआंदोलन का रूप ले लिया है—एक ऐसा आंदोलन जो अदालतों में, सड़कों पर, सोशल मीडिया पर और देश के हर कोने में न्याय की नई चेतना जगाने का काम कर रहा है।
बहुत बड़ी सच्चाई यह थी कि देश के आम नागरिकों को तो पता ही नहीं था कि—
ऐसे गलत, बेईमान, गैर-जिम्मेदार, लापरवाह और भ्रष्ट वकीलों के खिलाफ कानून में पहले से ही कठोर सजा का प्रावधान मौजूद है—जिसमें दंड, जुर्माना, मुआवज़ा, Contempt, Perjury और यहां तक कि अभियोजन (prosecution) तक का प्रावधान है।
लेकिन वकील इस कानून का उपयोग करने से डरते थे।
कुछ डर के कारण, कुछ दबाव के कारण, और कुछ अपनी ही पेशेगत राजनीति के कारण।
जागरूकता और न्याय का यह अभियान—2006 में शुरू हुआ
इसी अंधेरे माहौल में, 2006 में इंडियन बार एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष एडवोकेट निलेश ओझा ने इसे केवल एक “कानूनी मुद्दा” नहीं माना—बल्कि एक राष्ट्रीय कर्तव्य के रूप में स्वीकार किया।
उन्होंने इस विषय पर गहन शोध किया, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के फैसलों को इकट्ठा किया, और आम नागरिकों तथा वकीलों को यह एहसास दिलाया कि—
कानून से ऊपर कोई नहीं। न आम आदमी, न वकील, न पुलिस, न जज, न मंत्री, न नेता।
कानून के दायरे में रहने वालों का सम्मान है; कानून से बाहर जाने वाला चाहे कोई भी हो—वह आरोपी है।
उनके इस अथक, निरंतर और समर्पित प्रयास का ही प्रत्यक्ष परिणाम आज देशभर में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है —
🔹 लाखों नागरिक अब कानून को समझने लगे हैं, वे जानने लगे हैं कि कौन-सा अधिकार उनका है, कौन-सा कर्तव्य राज्य का है, और कौन-सा कार्य वकील या अधिकारी द्वारा किया जाना अनिवार्य है। पहले जो बातें केवल कुछ विशेष लोगों तक सीमित थीं, आज वे सामान्य नागरिक की समझ का हिस्सा बन चुकी हैं।
🔹 इंडियन बार एसोसिएशन के हजारों वकील अब अन्याय के खिलाफ खड़े हो रहे हैं — फीस के लिए नहीं, बल्कि समाजहित में।
वे अदालतों में गलत कानून बताने वालों, झूठी मिसालें छुपाने वालों, या भ्रष्ट वकीलों और अधिकारियों के विरुद्ध खुलकर आवाज उठा रहे हैं। आज देशभर से मांग उठ रही है कि ऐसे वकीलों पर सजा, जुर्माना, कॉन्टेम्प्ट और पर्जरी की कार्यवाही अनिवार्य रूप से की जाए — और कई राज्यों में यह प्रक्रिया अब तेज़ी से शुरू भी हो चुकी है।
🔹 “न्यायपालिका के भीतर मौजूद ईमानदार और संवेदनशील न्यायाधीश आज इस न्यायिक सुधार-प्रक्रिया में अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं। उनका नैतिक साहस और न्याय के प्रति समर्पण ही इस परिवर्तन को संभव बना रहा है।”
पहले जहाँ कुछ बातें अदालतों की चारदीवारी तक सीमित रहती थीं, आज कई माननीय न्यायाधीश स्वयं अपने आदेशों में अभियोजन पक्ष की गलतियों, भ्रष्ट कानून अधिकारियों की भूमिका, और नागरिक अधिकारों के उल्लंघन पर कठोर टिप्पणी कर रहे हैं।
यह परिवर्तन अदालतों में बढ़ती पारदर्शिता और न्यायपालिका की आत्मसुधार क्षमता का प्रमाण है।
अधिवक्ता निलेश ओझा और उनकी टीम ने पिछले दो दशकों में देश की न्यायिक व्यवस्था में जवाबदेही और पारदर्शिता स्थापित करने के लिए असाधारण साहस और दृढ़ संकल्प का परिचय दिया है।
उन्होंने न केवल भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों को उजागर किया, बल्कि सबसे प्रभावशाली और शक्तिशाली व्यक्तियों के विरुद्ध भी कानूनन कार्रवाई करने का ऐतिहासिक साहस दिखाया — चाहे वे बड़े वकील हों, प्रभावशाली राजनेता, उच्च अधिकारी, वरिष्ठ पुलिसकर्मी या न्यायपालिका के सदस्य ही क्यों न हों।
उनकी टीम ने अनेक महत्वपूर्ण मामलों में, ठोस साक्ष्यों और कानूनी दस्तावेजों के आधार पर, साहसी कदम उठाए। इनमें शामिल हैं:
🔹 प्रभावशाली वरिष्ठ वकीलों पर कार्रवाई
कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी जैसे देश के शक्तिशाली वकीलों के खिलाफ मामलों को उठाना, दस्तावेज़ प्रस्तुत करना और उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही प्रक्रिया प्रारंभ करवाना—यह कदम स्वयं में अभूतपूर्व था।
🔹 भ्रष्ट राजनेताओं और वरिष्ठ अधिकारियों पर कानूनी कार्रवाई
पूर्व महाराष्ट्र गृह मंत्री अनिल देशमुख, पूर्व CID महानिरीक्षक अबदुर रहमान,
तथा अन्य वरिष्ठ पुलिस व सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध भी गंभीर आरोपों सहित शिकायतें, जाँच माँगें और कार्रवाई की गईं।
🔹 सबसे महत्वपूर्ण — न्यायपालिका के भीतर Systemic Corruption को उजागर करना
इस आंदोलन की सबसे ऐतिहासिक उपलब्धि यह है कि अधिवक्ता ओझा और उनकी टीम ने न्यायपालिका के अंदर मौजूद प्रणालीगत भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी आवाज उठाई—जहाँ बोलना आमतौर पर असंभव माना जाता है।
भारतीय न्यायिक इतिहास में पहली बार—
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश — न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता
उनके विरुद्ध भ्रष्टाचार, अनुचित आचरण और सत्ता के दुरुपयोग से जुड़े मामलों में विस्तृत और प्रमाणित शिकायतें दर्ज की गईं।
🔸 पूर्व Chief Justice of India — डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़
देश के सर्वोच्च न्यायिक पद पर बैठे व्यक्ति के विरुद्ध भी सत्ता के दुरुपयोग, गलत आदेशों और न्यायिक आचरण से जुड़े मामलों को सामने लाने का साहस अधिवक्ता ओझा और उनकी टीम ने किया। यह संदेश स्थापित किया गया—
“कानून के सामने कोई बड़ा नहीं— न्याय ही सर्वोच्च है।”
🔸 बॉम्बे हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति रेवती मोहिटे-डेरे
बॉम्बे हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति रेवती मोहिटे–डेरे के संबंध में यह गंभीर आरोप उठाए गए हैं कि उन्होंने महत्वपूर्ण मामलों में संदिग्ध जमानत आदेश पारित किए तथा हज़ारों करोड़ रुपये के भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में आरोपी पक्ष को राहत प्रदान करने हेतु कथित रूप से सीबीआई की रिपोर्टों एवं अन्य आवश्यक दस्तावेजों को दबाया। यह भी आरोप है कि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित बाध्यकारी निर्देशों का उल्लंघन करते हुए आरोपी व्यक्तियों को जमानत दी। इन आरोपों को विस्तारपूर्वक अभिलेख पर लाया गया है, जिसके आधार पर उनके विरुद्ध criminal action की मांग करते हुए एक रिट याचिका दायर की गई है।
माननीय मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए वरिष्ठ न्यायाधीशों की एक विशेष खंडपीठ (Special Bench) का गठन किया है। यह याचिका वर्तमान में विचाराधीन है और आगामी सुनवाई में इस पर महत्वपूर्ण निर्णय अपेक्षित है।
🔸 अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश — जैसे जस्टिस अभय ओका, जस्टिस डी.एस. नायडू
इनके विरुद्ध भी प्रमाणों और रेकॉर्ड पर आधारित विस्तृत शिकायतें और जाँच माँगें की गईं, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि— न्यायपालिका भी कानून के दायरे से ऊपर नहीं है।
🔥 यह कदम ऐतिहासिक क्यों कहा जा रहा है?
क्योंकि कई दशकों में पहली बार—
· भ्रष्ट जजों के नाम सार्वजनिक रूप से सामने आए
· उनके खिलाफ दस्तावेज़ों और कानून के आधार पर कार्यवाही की माँग हुई
· जनता को बताया गया कि— “जज कानून से ऊपर नहीं हैं — हर नागरिक की तरह वे भी जवाबदेह हैं।”
इन निरंतर प्रयासों ने देश में एक नई सोच को जन्म दिया— कि
**न्यायपालिका की सत्य आलोचना अवमानना नहीं; भ्रष्टाचार उजागर करना राष्ट्रसेवा है।**
🌟 आज का परिणाम?
आज—
· हज़ारों वकील,
· लाखों नागरिक,
· और न्यायपालिका व प्रशासन के ईमानदार सदस्य
इस सुधार-यात्रा का हिस्सा बन चुके हैं।
देशभर में यह समझ विकसित हो रही है कि—
· न्यायपालिका में पारदर्शिता आवश्यक है
· गलत आदेशों को चुनौती देना हर नागरिक का अधिकार है
· भ्रष्ट जजों, अधिकारियों और वकीलों पर भी वही कानून लागू होता है जो आम नागरिक पर
अंतिम सार:
यह सिर्फ शिकायतें नहीं—बल्कि वह ऐतिहासिक मिसालें हैं जिन्होंने पूरे देश को यह संदेश दिया है कि “कानून के सामने सब समान हैं।”
और इसी निडर, निरंतर और सत्य आधारित प्रयास ने आज यह आंदोलन देश का सबसे प्रभावशाली न्यायिक सुधार आंदोलन बना दिया है।
✔️ यही वह 20 वर्षों की तपस्या है जिसने आज देश में न्यायिक जागरूकता की एक नई, शक्तिशाली क्रांति को जन्म दिया है।
जो मिशन कभी एक अकेले व्यक्ति के संकल्प और कुछ साथियों के साहस से शुरू हुआ था,
आज वह—
➡️ एक राष्ट्रीय जनआंदोलन,
➡️ एक व्यापक कानूनी जागृति, और
➡️ एक नई न्याय-संस्कृति
का रूप ले चुका है।
आज हर वर्ग — साधारण नागरिक, युवा छात्र, अधिकारी, वकील, और यहां तक कि न्यायपालिका के सत्यनिष्ठ सदस्य — इस परिवर्तन की धारा में साझेदार हैं।
इंडियन बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अधिवक्ता निलेश ओझा, और उनके साथ जुड़े देशभर के हज़ारों जागरूक वकीलों, कार्यकर्ताओं और नागरिकों ने पिछले दो दशकों में लगातार यह अभियान चलाया कि—
- गलत कानून बताने वाले वकील भी दंड से नहीं बच सकते,
- सरकारी वकीलों पर कठोर जिम्मेदारी तय होनी चाहिए,
- और न्याय जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए है — न कि पद, शक्ति या प्रभावशाली व्यक्तियों की कृपा पर।
आज वही 20 वर्षों की निरंतर लड़ाई, लेखन, जनजागरण अभियान, कानूनी पुस्तकों के प्रकाशन, और अदालतों में लगातार उठाए गए मुद्दे — देशव्यापी न्यायिक क्रांति बनकर सामने आए हैं।
🌟 ऐतिहासिक क्षण:
आज एडवोकेट निलेश ओझा और उनके साथ खड़े हज़ारों वकील
“आम आदमी की न्यायिक आवाज़” बनकर उभरे हैं।
इस फैसले ने सिद्ध कर दिया है कि—
“जब कानून की सही व्याख्या जनता तक पहुँचती है, तभी देश में असली ‘कानून का राज’ शुरू होता है।”
*शुरुआत में—जब यह आंदोलन सिर्फ़ एक विचार था—
अधिवक्ता निलेश ओझा और उनके साथ खड़े साथियों को चारों तरफ़ से अकल्पनीय विरोध का सामना करना पड़ा।**
उस समय न जनता जागरूक थी, न वकीलों में हिम्मत थी, और न ही कोई यह मानने को तैयार था कि—
- गलत कानून बताने वाला वकील,
- सही मिसालें छुपाने वाला सरकारी वकील,
- या राजनीतिक सिफ़ारिश से नियुक्त अयोग्य Public Prosecutor
एक निर्दोष नागरिक की ज़िंदगी बर्बाद करने के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार हो सकते हैं।
लेकिन Adv. निलेश ओझा ने जिस सत्य को पहचान लिया था, उसे स्वीकार करने की न तो व्यवस्था तैयार थी और न ही उस व्यवस्था के लाभार्थी।
विरोध, उपहास और दमन—हर दिशा से हमला शुरू हुआ
जब उन्होंने पहली बार कहा कि—
“गलत कानून बताना भी अपराध है, और भ्रष्ट वकीलों व अधिकारियों पर भी वैसी ही कानूनी कार्रवाई हो सकती है जैसी किसी अपराधी पर होती है”—
तो बहुतों ने इसे ‘असंभव’ कहकर खारिज कर दिया।
यहाँ तक कि—
- सालों तक उनका मज़ाक उड़ाया गया,
- ‘नासमझ’, ‘अव्यवहारिक’, ‘सिस्टम को चुनौती देने वाले’ कहकर बदनाम किया गया,
- उन्हें डराया-धमकाया गया,
- और कई बार सरकारी तंत्र तथा कुछ भ्रष्ट न्यायिक अधिकारियों ने मिलकर उन्हें रोकने की कोशिश की।
झूठे Contempt मामलों से दबाने का प्रयास
कुछ भ्रष्ट न्यायाधीशों और उनके सहयोगी वकीलों ने, सच बोलने और न्यायपालिका के अंदरूनी भ्रष्टाचार को उजागर करने के कारण, Adv. निलेश ओझा पर कई अवमानना (Contempt) की कार्यवाही शुरू करवाई।
इन कार्यवाहियों का उद्देश्य था:
- उन्हें डराना,
- उनकी आवाज़ बंद करना,
- और आंदोलन को जड़ से खत्म करना।
यह एक वैधानिक हथियार का दुरुपयोग था—ताकि सच बोलने वाले को ही अपराधी घोषित किया जा सके।
लेकिन अधर्मियों की हर रणनीति अंततः असफल साबित हुई — क्योंकि अधिवक्ता निलेश ओझा और उनकी टीम के साथ “पीड़ितों की दुआ”, “जनता का अटूट विश्वास”, “कानून की वास्तविक शक्ति” और “सत्य का अडिग आधार” खड़ा था।
अन्याय फैलाने वालों ने अनेक तरीके अपनाए— झूठे मुकदमे, अवमानना की धमकियाँ, राजनीतिक और न्यायिक दबाव, और समाज में भ्रम फैलाने के प्रयास। लेकिन इन सबके बावजूद यह आंदोलन रुका नहीं। क्योंकि—
✅ जहाँ पीड़ितों की सच्ची आह लगी हो,
✅ जहाँ हजारों नागरिकों का विश्वास जुड़ा हो,
✅ जहाँ कानून और संविधान की शक्ति मार्गदर्शक हो,
✅ और जहाँ सत्य स्वयं ढाल बनकर खड़ा हो,
वहाँ कोई भी षडयंत्र—चाहे कितना ही ताकतवर क्यों न हो—टिक नहीं सकता।
अधिवक्ता निलेश ओझा और उनकी टीम: पीछे नहीं हटे, डरे नहीं, झुके नहीं बल्कि हर आघात के बाद पहले से अधिक मज़बूत, पहले से अधिक तथ्यपूर्ण,
और पहले से अधिक समर्थ होकर सामने आए।
उन पर किए गए कई अवमानना मामले— उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में— समय के साथ झूठ, दुर्भावना और आधारहीनता के कारण ध्वस्त हुए।
इन फैसलों ने साबित किया कि—
👉 सच बोलने वाले को चुप नहीं कराया जा सकता,
👉 और कानून हमेशा अंत में सत्य के साथ खड़ा होता है।
समय के साथ यह भी सिद्ध हुआ कि— जो लोग व्यक्तिगत स्वार्थ और भ्रष्ट तंत्र के बल पर इस मुहिम को रोकना चाहते थे, वे खुद ही जनता और कानून के सामने बेनकाब हो गए। हर बार—
- जनता ने उनका साथ दिया,
- सुप्रीम कोर्ट के बड़े-बड़े फैसलों ने उनकी बात को सही साबित किया,
- उनकी टीम के निर्भीक, सिद्धांतवादी वकील मज़बूती से साथ खड़े रहे,
- और अंततः हर बार सत्य की ही जीत हुई।
जितनी कोशिश उन्हें रोकने की की गई— उतनी ही अधिक ताकत के साथ वे और उनका आंदोलन उभरा।
आज स्थिति उलट चुकी है. आज स्थिति यह है कि—
सत्य और न्याय की आवाज़ पहले से कहीं अधिक मज़बूती से उठ रही है, और यही वह कारण है जिसकी वजह से यह 20 वर्ष पुरानी लड़ाई अब राष्ट्रव्यापी न्यायिक क्रांति में बदल चुकी है
आज—
- वकील,
- आम नागरिक,
- अधिकारी,
- पुलिस,
- और यहाँ तक कि न्यायपालिका के ईमानदार सदस्य भी
इस जागरूकता अभियान का हिस्सा बन चुके हैं।
आज यह आंदोलन सिर्फ़ निलेश ओझा का नहीं— पूरा देश का आंदोलन बन चुका है।
✊ 20 वर्ष पहले शुरू हुई एक लड़ाई — आज करोड़ों लोगों की आवाज़ बन गई है।
यह साबित करता है कि—
“जब लड़ाई सत्य की हो, और हथियार कानून का हो —
तो कोई भी शक्ति उसे रोक नहीं सकती।”
👉 3 निर्दोष नागरिकों को ₹5–5 लाख का हर्जाना देने का आदेश
जस्टिस जे. बी. परडिवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने पाया कि:
- सरकारी वकील ने अदालत को सही कानून नहीं बताया,
- सुप्रीम कोर्ट के बंधनकारी फैसले (binding precedents) नहीं रखे,
- नतीजा: 3 निर्दोष लोग 3 महीने जेल में रहे, जबकि वे बेकसूर थे।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया:
“हर व्यक्ति को ₹5,00,000 का मुआवज़ा तुरंत दिया जाए।”
IBA अध्यक्ष निलेश ओझा ने फैसले का स्वागत किया
इंडियन बार एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता निलेश ओझा, जो पिछले 20 वर्षों से इस मुद्दे पर लड़ाई लड़ रहे हैं, ने इस फैसले को कहा:
“यह देश में न्यायिक क्रांति लाने वाला आदेश है। गलत कानून बताने वालों को अब जवाब देना ही होगा। यही असली कानून का राज है।”
उन्होंने कहा कि यह फैसला देशभर के सरकारी वकीलों और अभियोजकों को चेतावनी है कि:
· अदालत में सच न छुपाएं,
· गलत कानून न बताएं,
· बाइंडिंग सुप्रीम कोर्ट फैसलों को न दबाएं,
· किसी को गलत तरीके से फँसाने या बचाने की कोशिश न करें।
⚖️ सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में क्या-क्या कहा?
🔹 1. गलत कानून बताएंगे तो नुकसान सरकार भरेगी
अगर सरकारी वकील की गलती से किसी नागरिक को जेल, बदनामी या नुकसान होता है—
तो उसकी भरपाई अब राज्य सरकार करेगी।
🔹 2. सरकारी वकीलों की लापरवाही पर सख़्त टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि: “राज्यों में राजनीतिक दबाव पर नियुक्त किए गए Public Prosecutors न्याय के लिए खतरा हैं।”
🔹 3. हर व्यक्ति को वकील चुनने का मौलिक अधिकार
चाहे गिरफ्तार हो या न हो— हर इंसान को अपना वकील चुनने और सलाह लेने का Article 22(1) के तहत फंडामेंटल राइट है।
🔹 4. अदालत की गलती से किसी नागरिक को नुकसान नहीं
अगर कोर्ट की वजह से किसी को अन्याय हुआ है— तो कोर्ट उसे उसके पुराने स्थान पर लाने (compensation) का हकदार है।
यह फैसला क्यों ऐतिहासिक माना जा रहा है?
✔️ निर्दोष लोगों को गलत सज़ा मिलने की घटनाएँ घटेंगी — क्योंकि अब अदालत को गलत दिशा देने वाले सरकारी वकील उत्तरदायी ठहराए जाएंगे।
✔️ सरकारी वकीलों की जवाबदेही सुनिश्चित होगी — उनकी गलती, लापरवाही या दुर्भावना के कारण नागरिकों को हुए नुकसान की भरपाई अब राज्य को करनी पड़ेगी।
✔️ भ्रष्ट वकीलों और अधिकारियों पर कार्रवाई आसान होगी — क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि गलत कानून बताना, मिसालें छुपाना या भ्रामक बहस करना सीधे-सीधे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
✔️ राज्य सरकारों पर योग्य, ईमानदार और merit-based वकीलों की नियुक्ति का दबाव बढ़ेगा — राजनीतिक या व्यक्तिगत सिफ़ारिशें अब राज्यों को महंगी पड़ेंगी।
✔️ न्याय व्यवस्था जनता के प्रति अधिक उत्तरदायी होगी — अदालतें भी इस सिद्धांत पर चलेंगी कि “अदालत की गलती से किसी नागरिक को नुकसान नहीं होना चाहिए”।