ऐतिहासिक शिकायत : इंडियन लॉयर्स एंड ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट्स एसोसिएशन द्वारा मुख्य न्यायाधीश चंद्रशेखर के विरुद्ध न्यायिक शपथ के उल्लंघन व गंभीर दुराचार की शिकायत. संवैधानिक अवमानना के गंभीर आरोप।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा संचालित संविधान सभा की बहसों तथा उसके पश्चात् सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्टों के निर्णयों के अनुसार कोई भी न्यायाधीश जो अपनी संवैधानिक शपथ का उल्लंघन करता है, वह उसी क्षण से कानूनी और नैतिक दृष्टि से न्यायाधीश रह ही नहीं जाता, जब तक कि उसे पुनः शपथ नहीं दिलाई जाती।
ऐसा व्यक्ति, जिसने “बिना भय या पक्षपात, स्नेह या द्वेष के संविधान और कानून की रक्षा करने” की मूल प्रतिज्ञा को तोड़ा है, वह किसी भी सार्वजनिक पद पर बने रहने या न्यायिक अधिकार का प्रयोग करने के योग्य नहीं रहता।
इसी संवैधानिक सिद्धांत के आलोक में मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रशेखर के विरुद्ध दायर यह शिकायत ऐतिहासिक महत्व रखती है क्योंकि यह केवल किसी प्रक्रिया संबंधी त्रुटि का मामला नहीं है, बल्कि न्यायिक शपथ के पूर्ण विश्वासघात और उस संवैधानिक व्यवस्था की खुली अवहेलना का गंभीर आरोप है, जिसकी रक्षा करना प्रत्येक न्यायाधीश का सर्वोच्च कर्तव्य है।
नई दिल्ली / मुंबई | दिनांक : इंडियन लॉयर्स एंड ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट्स एसोसिएशन (ILHRA) ने वरिष्ठ अधिवक्ताओं और सामाजिक प्रतिनिधियों के साथ मिलकर भारत के राष्ट्रपति महोदय एवं न्याय विभाग के समक्ष एक विस्तृत संवैधानिक प्रतिनिधित्व प्रस्तुत किया है, जिसमें बॉम्बे हाईकोर्ट के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रशेखर के विरुद्ध गंभीर न्यायिक दुराचार, न्यायिक शपथ का उल्लंघन और सुप्रीम कोर्ट के बाध्यकारी निर्णयों की जानबूझकर अवहेलना के आरोप लगाए गए हैं।
प्रस्तुत शिकायत, दस्तावेजी और इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों (वीडियो व ऑडियो रिकॉर्डिंग सहित) से समर्थित है। इसमें कहा गया है कि मुख्य न्यायाधीश चंद्रशेखर ने बार-बार सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का पालन करने या उन पर विचार करने से भी इनकार किया, तथा विरोधाभासी और भेदभावपूर्ण आदेश पारित किए कुछ अधिवक्ताओं को राहत देते हुए अन्य समान मामलों में राहत से इंकार किया, और यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देने वाले अधिवक्ताओं को हिरासत में लेने की धमकी दी।
यह आचरण, प्रस्तुत शिकायत के अनुसार, संविधान के अनुच्छेद 14, 21, 141 और 144 का स्पष्ट उल्लंघन है तथा अनुच्छेद 124(4) और 218 के अंतर्गत “दुराचार” (misbehaviour) की श्रेणी में आता है, जिसके लिए Judges (Inquiry) Act, 1968 के तहत न्यायिक जांच और पद से हटाने की कार्यवाही आवश्यक है।
शिकायत में यह भी कहा गया है कि ऐसा आचरण न केवल संविधान के अनुच्छेद 124(6) और 219 के अंतर्गत ली गई न्यायिक शपथ का उल्लंघन है, बल्कि यह न्यायिक निष्पक्षता, कानून के समक्ष समानता और न्यायपालिका में जनता के विश्वास की बुनियाद को भी हिला देता है।
उदाहरण स्वरूप प्रमुख घटनाएं;
1. Registrar, Nilamber Pitamber University बनाम State of Jharkhand (2023 SCC OnLine Jhar 1635) में न्यायमूर्ति चंद्रशेखर ने स्वयं यह माना था कि —
“न्यायिक निर्णयों की आत्मा उनके कारणों में निहित होती है, और प्रत्येक न्यायाधीश का यह दायित्व है कि वह पक्षकारों की दलीलों को पूर्ण रूप से सुने, उन पर विचार करे, और अपने आदेश में कारण स्पष्ट रूप से अंकित करे, ताकि न्याय न केवल किया जाए बल्कि होते हुए दिखाई भी दे।”
किंतु 16.10.2025 के अपने आदेश (SMCP (Crl.) No. 01 of 2025) में उन्होंने अपनी ही पूर्व विधिक दृष्टि और सर्वोच्च न्यायालय के बाध्यकारी निर्णयों के विपरीत यह कहा कि —
“ऐसा कोई कानून नहीं है जो अदालत को पक्षकारों की दलीलों या उद्धृत केस लॉ पर विचार करने के लिए बाध्य करता हो।”
2. इसी प्रकार के विरोधाभासी, गैरकानूनी और असंवैधानिक आदेश एक अन्य मामले में भी पारित किए गए। Court on its Own Motion बनाम Rajiv Ranjan (2024 SCC OnLine Jhar 1224) में न्यायमूर्ति चंद्रशेखर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि —
“Contempt of Courts Act का पालन प्रत्येक न्यायालय के लिए अनिवार्य है, और अवमानना की कार्यवाही उसी अधिनियम में निर्धारित विधिक प्रक्रिया के अनुसार ही की जा सकती है।”
परंतु, सन् 2025 में उन्होंने अपनी ही उक्त विधिक दृष्टि तथा सुप्रीम कोर्ट के बाध्यकारी निर्णयों के विपरीत जाकर एक अवमान्य (Overruled) निर्णय — Pritam Pal Singh v. High Court of Madhya Pradesh (1992) — पर भरोसा करते हुए यह कहा कि Contempt of Courts Act हाईकोर्ट पर “लागू नहीं होता”।
यह व्याख्या सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठों द्वारा Pallav Sheth v. Custodian (2001) 7 SCC 349, Bal Thackeray v. Harish Pimpalkhute (2005) 1 SCC 254, तथा Dr. L.P. Mishra v. State of U.P. (1998) 7 SCC 379 जैसे मामलों में स्पष्ट रूप से अस्वीकार की जा चुकी है।
दिशा सालियन के पिता श्री सतीश सालियन की शिकायत (Case No. PRSEC/E/2025/0061948) और ILHRA की शिकायत (File No. PRSEC/E/2025/0061483) — दोनों को ही राष्ट्रपति सचिवालय ने विधिवत स्वीकार कर न्याय विभाग को आगे की कार्रवाई हेतु स्थानांतरित कर दिया है।
संवैधानिक और विधिक स्थिति
सुप्रीम कोर्ट ने Ratilal Jhaverbhai Parmar v. State of Gujarat (2024 SCC OnLine SC 298) में यह स्पष्ट किया है कि —
“जो न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधि का पालन करने से इनकार करता है, वह राष्ट्र द्वारा उस पर रखे गए विश्वास का विश्वासघात करता है और न्यायिक शपथ का उल्लंघन करता है।”
इसी प्रकार S.P. Gupta v. President of India (AIR 1982 SC 149), Subhash Chandra Agarwal (2020) 5 SCC 481 और Official Liquidator v. Dayanand (2008) 10 SCC 1 जैसे अनेक निर्णयों में कहा गया है कि न्यायिक शपथ का उल्लंघन “संवैधानिक दुराचार” है और ऐसा न्यायाधीश किसी भी सार्वजनिक पद के योग्य नहीं रहता।
यह भी कहा गया है कि यदि कोई मुख्य न्यायाधीश अधिवक्ताओं को सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देने पर गिरफ्तारी की धमकी देता है, तो यह न केवल संवैधानिक पदानुक्रम का अपमान है, बल्कि स्वयं सुप्रीम कोर्ट की आपराधिक अवमानना के समान है।
मुख्य माँगें
1. Judges (Inquiry) Act, 1968 के अंतर्गत तत्काल न्यायिक जांच प्रारंभ की जाए।
2. जांच के दौरान मुख्य न्यायाधीश चंद्रशेखर से सभी न्यायिक कार्य वापस लिए जाएं।
3. सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों की अवमानना के लिए आपराधिक अवमानना की कार्यवाही प्रारंभ की जाए।
4. संवैधानिक शपथ के उल्लंघन और पद के दुरुपयोग के लिए संवैधानिक कार्रवाई की जाए — अनुच्छेद 124(4), 218 और 219 के तहत।
जनता के विश्वास की बहाली की माँग;
हस्ताक्षरकर्ताओं ने कहा है कि यह अभूतपूर्व स्थिति अब तत्काल और पारदर्शी हस्तक्षेप की माँग करती है।
भारत के राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायाधीश और न्याय विभाग को संविधान की मर्यादा, न्यायपालिका की गरिमा और जनता के विश्वास को पुनर्स्थापित करने के लिए तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए।
यदि ऐसे आचरण को अनदेखा किया गया तो यह न्यायपालिका की विश्वसनीयता को गंभीर और स्थायी क्षति पहुँचाएगा — जो कि नागरिकों के लिए न्याय पाने का अंतिम आश्रय है।