फर्जी रिकॉर्ड बनाने वाले न्यायाधीश पर हाईकोर्ट ने झूठी गवाही (Perjury) की जांच और निलंबन का आदेश दिया

हाईकोर्ट ने कहा: “कानून से कोई ऊपर नहीं। यदि झूठी गवाही के आरोप सही पाए गए, तो ऐसा व्यक्ति एक सेकंड भी न्यायाधीश या किसी पद पर बने रहने के योग्य नहीं है” [Mohd. Nazer v. Union Territory, MANU/KR/3881/2022]
भारत में न्यायिक क्रांति : न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने तथा भ्रष्टाचार-मुक्त न्यायव्यवस्था के लिए जजों के भ्रष्टाचार और दुराचार के विरुद्ध इंडियन बार एसोसिएशन का देशव्यापी जनआंदोलन
एक और भी मज़बूत मामला, ठोस और निर्णायक साक्ष्यों के आधार पर, बॉम्बे हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति सौ. रेवती मोहिटे-डेरे के खिलाफ दायर किया गया है, जिसमें इंडियन बार एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष अधिवक्ता नीलेश ओझा ने इसी प्रकार की राहतों की मांग की है।
यह मामला अब बॉम्बे हाईकोर्ट की पाँच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए निश्चित किया गया है। माना जा रहा है कि यह कार्यवाही न केवल न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही की कसौटी बनेगी, बल्कि भविष्य में न्यायाधीशों की जवाबदेही को लेकर एक मिसाल भी कायम करेगी।
इसके अतिरिक्त, अधिवक्ता विजय कुरले द्वारा भी एक समान मामला बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति श्री जी. एस. कुलकर्णी के विरुद्ध दाखिल किया गया है। इस याचिका में भी न्यायिक आचरण, रिकॉर्ड में हेरफेर और गंभीर अनियमितताओं के आरोप लगाए गए हैं। इस मामले की सुनवाई बॉम्बे हाईकोर्ट की एक विशेष पीठ के समक्ष होने जा रही है।
इन दोनों प्रकरणों ने न्यायिक गलियारों में गहरी हलचल मचा दी है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यदि इन मामलों में न्यायाधीशों के खिलाफ ठोस निष्कर्ष निकलते हैं, तो यह भारतीय न्यायपालिका में न्यायिक जवाबदेही (Judicial Accountability) के लिए एक ऐतिहासिक मोड़ साबित होगा।
इसके अतिरिक्त, अधिवक्ता विजय कुरले द्वारा न्यायमूर्ति श्री जी. एस. कुलकर्णी के खिलाफ भी एक समान मामला दायर किया गया है, जिसकी सुनवाई बॉम्बे हाईकोर्ट की एक विशेष पीठ के समक्ष होने वाली है।
मुंबई, 1 सितम्बर:
एक ऐतिहासिक और अभूतपूर्व फैसले में, हाईकोर्ट ने एक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के खिलाफ झूठी गवाही (Perjury) की जांच शुरू करने और उन्हें निलंबित करने का आदेश दिया है। आरोप है कि उक्त मजिस्ट्रेट ने एक वादी को परेशान करने के लिए न्यायालय के रिकॉर्ड में फर्जीवाड़ा किया, जिसने उनके खिलाफ शिकायत दर्ज की थी।
Mohd. Nazer v. Union Territory [MANU/KR/3881/2022] शीर्षक वाला यह मामला न्यायपालिका के गलियारों में सनसनी फैला चुका है। कोर्ट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 340 के तहत न केवल फर्जीबयानी के आरोपों पर आपराधिक जांच का आदेश दिया बल्कि अधिकारी को तुरंत निलंबित करने के निर्देश दिए। साथ ही, कोर्ट ने उन्हें पक्षकार (पार्टी-रेस्पॉन्डेंट) बनाते हुए नोटिस जारी किया और कठघरे में खड़ा कर दिया।
कोर्ट की कड़ी टिप्पणियाँ
माननीय पीठ ने सख्त लहजे में कहा कि न्यायिक ईमानदारी ही न्याय व्यवस्था की रीढ़ है। अदालत ने कहा:
“यदि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के खिलाफ आरोप सही हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण और अभूतपूर्व है। भारतीय न्यायपालिका में नागरिकों का असीम विश्वास हमारी न्याय प्रणाली की रीढ़ है। न्यायिक अधिकारियों को बेदाग रहना चाहिए और उनका कलम—जो बेहद शक्तिशाली है—सावधानीपूर्वक, बिना डर और पक्षपात के प्रयोग होना चाहिए। यदि आरोप सही हैं, तो संबंधित मजिस्ट्रेट एक सेकंड भी किसी पद पर बने रहने के योग्य नहीं हैं।”
कोर्ट ने आगे कहा कि जनता का भरोसा बनाए रखने के लिए अनुशासनिक प्राधिकारी को अधिकारी को लंबित जांच तक निलंबित करना होगा। पीठ ने दोहराया कि “चाहे कोई मजिस्ट्रेट हो या न्यायाधीश, वह भी कानून से ऊपर नहीं। यदि कर्तव्य में चूक होती है, तो संवैधानिक न्यायालयों को जनता के विश्वास की रक्षा के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए।”
न्यायिक जवाबदेही के निहितार्थ
यह फैसला स्पष्ट घोषणा है कि न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट भी कानून से ऊपर नहीं हैं। अदालत ने कहा कि कर्तव्यच्युत होना, झूठी गवाही देना या न्यायालयी रिकॉर्ड में फर्जीवाड़ा करना, किसी भी नागरिक की तरह न्यायिक अधिकारियों को भी दंडनीय बनाएगा।
हाईकोर्ट ने यह सिद्धांत मजबूत किया कि यदि न्यायालयी रिकॉर्ड में सिर्फ एक भी फर्जी प्रविष्टि सिद्ध हो जाती है तो वह न्यायिक अधिकारी “एक सेकंड भी पद पर बने रहने के योग्य नहीं है।”
बॉम्बे हाईकोर्ट में समान मामला
यह फैसला बॉम्बे हाईकोर्ट में चल रहे विवाद से गहराई से मेल खाता है, जहाँ न्यायमूर्ति रेवती मोहिटे-देरे के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए गए हैं। अधिवक्ता नीलेश ओझा ने उनके खिलाफ धारा 340 Cr.P.C. के तहत जांच, झूठी गवाही की कार्यवाही और निलंबन की मांग की है।
ओझा ने Mohd. Nazer फैसले से समानता दिखाते हुए कहा है कि यदि एक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को फर्जी रिकॉर्ड के लिए निलंबित किया जा सकता है, तो हाईकोर्ट न्यायाधीश को भी इसी तरह की कार्यवाही का सामना करना होगा।
यह मामला अब बॉम्बे हाईकोर्ट की पाँच-न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ के समक्ष जल्द ही सुनवाई के लिए तय हुआ है और यह उच्चतम स्तर पर न्यायिक जवाबदेही की कसौटी साबित होने वाला है।
निष्कर्ष
Mohd. Nazer का फैसला भारतीय न्यायिक इतिहास में मील का पत्थर है। यह एक अटल संदेश देता है:
- न्यायिक पद भ्रष्टाचार या गलत कामों की ढाल नहीं हो सकता।
- झूठी गवाही और रिकॉर्ड की फर्जीवाड़ा न्याय की जड़ों पर प्रहार है।
- दोषी सिद्ध होने पर अधिकारी एक पल भी पद पर बने रहने के योग्य नहीं।
यह फैसला विश्वास दिलाता है कि न्यायपालिका अपने भीतर के दोषियों को भी संरक्षण नहीं देगी, बल्कि उन्हें उन्हीं सिद्धांतों के प्रति जवाबदेह ठहराएगी, जिनकी रक्षा का उसने शपथ लिया है। लोकतंत्र में न्यायाधीश भी जवाबदेह हैं और उन्हें भी न्याय के कटघरे में खड़ा किया जा सकता है।
भारत में न्यायिक क्रांति : न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने तथा भ्रष्टाचार-मुक्त न्यायव्यवस्था के लिए जजों के भ्रष्टाचार और दुराचार के विरुद्ध इंडियन बार एसोसिएशन का देशव्यापी जनआंदोलन
यह पहला मामला नहीं है। वर्षों से ऐसे कई उल्लेखनीय उदाहरण सामने आए हैं, जहाँ उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों पर मुकदमे चलाए गए, आरोपपत्र दाखिल हुए, दोषी ठहराया गया, सज़ा दी गई, दंडित किया गया, उनके न्यायिक कार्य वापस लिए गए और यहाँ तक कि महाभियोग की कार्यवाही भी की गई। दुराचार, भ्रष्टाचार, शपथभंग (Perjury) और शक्तियों के दुरुपयोग जैसे मामलों से जुड़े इन ऐतिहासिक निर्णयों का विवरण, प्रामाणिक विधिक स्थिति और दोषी न्यायाधीशों के विरुद्ध कार्यवाही शुरू करने हेतु तैयार प्रारूप, सब कुछ इंडियन बार एसोसिएशन (IBA) की आधिकारिक वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है।
इंडियन बार एसोसिएशन (IBA) अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष अधिवक्ता नीलेश ओझा के दूरदर्शी मार्गदर्शन और सशक्त नेतृत्व में न्यायिक पारदर्शिता, ईमानदारी और जवाबदेही सुनिश्चित करने के ऐतिहासिक आंदोलन के अग्रभाग में रहा है। पिछले दो दशकों से, अधिवक्ता ओझा और उनकी समर्पित टीम ने उच्च न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार को उजागर करते हुए जालसाज़ी, शपथभंग, अधिकारों के दुरुपयोग और गंभीर दुराचार के मामलों को सामने लाने का निरंतर कार्य किया है।
साहस और निरंतरता के साथ, IBA ने धारा 340 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत शपथभंग के मामले, भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आपराधिक मुकदमे, तथा उन न्यायाधीशों और वरिष्ठ अधिवक्ताओं के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही दायर की है, जिन्होंने न्याय की धारा को तोड़-मरोड़ कर प्रभावित करने की कोशिश की। ये कार्यवाहियाँ केवल अलग-अलग कानूनी लड़ाइयाँ नहीं हैं, बल्कि एक बड़ी न्यायिक क्रांति हैं, जिसका उद्देश्य भीतर से व्यवस्था को शुद्ध करना और नागरिकों के विश्वास को न्याय के गौरव में पुनः स्थापित करना है।
जो कभी केवल कुछ साहसी आवाज़ों का संघर्ष था, आज वह एक राष्ट्रीय आंदोलन बन चुका है। यह आंदोलन न्यायालयों और बार एसोसिएशनों की दीवारों से निकलकर बहुत आगे बढ़ चुका है। इसमें अब समान विचारधारा वाले अधिवक्ता, कार्यकर्ता, पत्रकार, ईमानदार न्यायाधीश, ईमानदार नौकरशाह, पुलिस अधिकारी, सेना के पूर्व अधिकारी, गुप्तचर विभाग के अधिकारी और सिद्धांतवादी राजनीतिक नेता खुलकर समर्थन कर रहे हैं। सभी मानते हैं कि न्यायपालिका की ईमानदारी ही लोकतंत्र की आत्मा है और इसकी रक्षा हर कीमत पर की जानी चाहिए।
जो कभी जड़ जमा चुके स्वार्थी तत्वों के खिलाफ संघर्ष माना जाता था, वह अब एक जन आंदोलन में बदल चुका है, जिसे पूरे भारत में लाखों नागरिकों का समर्थन प्राप्त है। उनके लिए अधिवक्ता नीलेश ओझा साहस और आशा का प्रतीक बनकर उभरे हैं, जो न्यायपालिका को अधिक पारदर्शी, जवाबदेह और भ्रष्टाचार-मुक्त बनाने के रास्ते का नेतृत्व कर रहे हैं।
IBA अब केवल वकीलों का पेशेवर संगठन नहीं रहा, बल्कि यह एक राष्ट्रीय मंच बन चुका है, जो न्यायिक भ्रष्टाचार के खिलाफ संगठित प्रतिरोध का प्रतीक है और आम नागरिकों को सत्य, न्याय और कानून के शासन की रक्षा के लिए खड़ा होने, बोलने और भाग लेने के लिए प्रेरित कर रहा है।
IBA की प्रमुख पहलें और अभियान
- फर्जी या गढ़े गए न्यायालयीन रिकॉर्ड को चुनौती देना और जिम्मेदार व्यक्तियों के खिलाफ कठोर दंड की मांग करना।
- अवमानना की कार्यवाही शुरू करना उन न्यायाधीशों और वरिष्ठ अधिवक्ताओं के खिलाफ, जो बाध्यकारी निर्णयों को दबाने या कानून को तोड़-मरोड़ कर पेश करने में शामिल रहे।
- वकीलों और जनता को जागरूक करना कि संविधान के अनुच्छेद 51-ए के अंतर्गत उनका कर्तव्य और अधिकार है कि वे न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को उजागर करें।
- जनहित याचिकाएँ (PILs) दाखिल करना, जिनमें न्यायिक जवाबदेही को मजबूत करने और ईमानदार न्यायाधीशों की रक्षा करने की मांग की जाती है।
- देशव्यापी अधिवक्ता और शोधकर्ताओं का नेटवर्क बनाना, जो दुराचार के मामलों की पहचान करें, ठोस दस्तावेजी सबूत जुटाएँ और सुनिश्चित करें कि भ्रष्टाचार का कोई भी मामला अनदेखा न रह जाए।
इन अथक प्रयासों के माध्यम से, IBA एक चौकसी संस्था (watchdog institution) के रूप में उभरी है, जो यह सिद्धांत और विश्वास दृढ़ करती है कि न्यायपालिका भी जाँच से परे नहीं है और यह अटल सत्य है कि “कानून से ऊपर कोई नहीं।”