कोर्ट अवमानना मामला: ॲड. निलेश ओझा ने बॉम्बे हाईकोर्ट में दायर की दोषमुक्ति याचिका, कहा — “सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने हाईकोर्ट की कार्रवाई को कर दिया ओवररूल, मुझे तुरंत बरी करें और मौलिक अधिकारों के हनन पर मुआवज़ा दें।”

ॲडवोकेट निलेश ओझा की याचिका में रखी गईं प्रमुख माँगें (संक्षेप में):
1. झूठी जानकारी देने वाले अज्ञात सूत्र पर कार्रवाई — उसके खिलाफ Perjury और Contempt का मामला चलाया जाए।
2. तीन वरिष्ठ अधिवक्ताओं पर अवमानना की कार्यवाही — मिलिंद साठे, ए.एस.पी. चिनॉय और दारियस खंबाटा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले छिपाए; उनके खिलाफ कोर्ट की अवमानना की कार्यवाही शुरू की जाए।
3. वरिष्ठ वकील का दर्जा रद्द हो — तीनों अधिवक्ताओं ने कोर्ट की सहायता करने का नैतिक दायित्व निभाने में चूक की, इसलिए उनकी Senior Advocate की उपाधि रद्द की जाए।
4. जस्टिस रेवती मोहिते-डेरे का ट्रांसफर — सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के फैसले के अनुसार, पूर्वग्रह और राजनीतिक संबंधों के चलते उन्हें महाराष्ट्र से बाहर किसी अन्य हाईकोर्ट में स्थानांतरित किया जाए।
मुंबई, 2 जून 2025 — बॉम्बे हाईकोर्ट में चल रहे चर्चित सुओ मोटू कोर्ट अवमान मामले में आज एक नया मोड़ आ गया जब जानेमाने संवैधानिक अधिवक्ता ॲड.वोकेट निलेश ओझा ने एक विस्तृत दोषमुक्ति याचिका दाखिल कर न्यायालय से तीन अहम राहतें मांगीं।
याचिका में ओझा ने कहा कि,
“मेरे खिलाफ शुरू की गई यह अवमानना कार्यवाही न केवल सुप्रीम कोर्ट के कई ताज़ा और बाध्यकारी फैसलों के ख़िलाफ़ है, बल्कि यह संविधान में दिए गए अनुच्छेद 19(1)(a) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार) का भी खुला उल्लंघन है।”
याचिका में मांगी गईं मुख्य राहतें:
1. दिनांक 8 अप्रैल 2025 को जारी हुआ एकतरफा आदेश तत्काल प्रभाव से वापस लिया जाए।
2. Criminal Suo Motu Contempt Petition No. 1 of 2025 में उन्हें पूरी तरह से दोषमुक्त किया जाए।
3. मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए राज्य सरकार से मुआवज़ा दिलाया जाए।
वरिष्ठ वकीलों पर लगाया गंभीर आरोप:
ॲड.वोकेट ओझा ने दावा किया है कि सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्णयों को जानबूझकर दबाया गया, जिससे हाईकोर्ट को भ्रमित कर अवैध प्रक्रिया को आगे बढ़ने दिया गया।
उन्होंने वरिष्ठ अधिवक्ताओं —
- मिलिंद साठे,
- ए.एस.पी. चिनॉय, और
- दारियस खंबाटा — के खिलाफ
- कोर्ट की अवमानना और जानबूझकर कानून छिपाने का आरोप लगाते हुए,
उनका ‘वरिष्ठ अधिवक्ता’ दर्जा रद्द करने की मांग की है।
कोर्ट अवमान नोटिस में स्पष्ट आरोप नहीं — पूरी प्रक्रिया अमान्य:
ॲड.ओझा ने कहा कि जिस अवमानना नोटिस के आधार पर यह कार्यवाही शुरू की गई, उसमें Contempt of Courts Act, 1971 की धारा 15(3) के अनुसार आवश्यक आरोप ही दर्ज नहीं हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने Sahdeo @ Sahdeo Singh v. State of U.P. (2010) के फैसले में स्पष्ट कहा है:
“बिना Contempt of Courts Act, 1971 की धारा 15(3) के अनुसार आवश्यक स्पष्ट आरोप के कोर्ट अवमान की कोई कार्यवाही वैध नहीं मानी जा सकती।”
सूचना किसने दी? नाम छुपाया गया — यह भी अवैध:
याचिका में बताया गया है कि इस अवमानना कार्रवाई की सूचना किस व्यक्ति ने दी, यह आज तक कोर्ट रिकॉर्ड में प्रकट नहीं किया गया है, जिससे आरोपी को अपने बचाव का मौका ही नहीं मिला।
यह प्रक्रिया न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध और संविधान के अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के दायरे में आती है।
तीसरे पक्ष को उत्तरदाता बनाने का आदेश असंवैधानिक:
कोर्ट अवमानना कार्यवाही सिर्फ कोर्ट और आरोपी के बीच होती है। लेकिन हाईकोर्ट ने इस मामले में बार काउंसिल, ABP माझा, और अन्य को भी उत्तरदाता बनाया, जो कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय C.S. Karnan (2017) और Yatin Oza (2020) जैसे मामलों में अवैध ठहराया गया है।
मुख्य न्यायाधीश पर उठे सवाल:
मुख्य न्यायाधीश आलोक आराध्ये ने इस अवमान कार्रवाई की प्रशासनिक मंजूरी स्वयं दी, और अब वही इस पर न्यायाधीश के रूप में बैठ रहे हैं, जो कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के अनुसार सिद्ध हितों का टकराव (Conflict of Interest) है।
“कोई व्यक्ति एक ही समय पर गवाह और न्यायाधीश नहीं हो सकता” (Devinder Pal Singh Bhullar, Gullapalli Nageshwara Rao)
इसलिए 8 अप्रैल का आदेश और पूरी प्रक्रिया रद्दबातल ठहराई जानी चाहिए, ऐसा ओझा ने मांग की है।
न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे की बदली की मांग:
याचिका में कहा गया है कि जस्टिस रेवती मोहिते डेरे की बहन राष्ट्रवादी कांग्रेस (शरद पवार गुट) की नेतृ हैं और पूर्व के फैसलों में उनका रुझान स्पष्ट देखा गया है।
इसलिए, S.P. Gupta v. Union of India (1981) के फैसले के अनुसार, उनकी बदली महाराष्ट्र से बाहर होनी अनिवार्य है।
सरकारी वकीलों की लापरवाही — सरकार से मांगी क्षतिपूर्ति:
याचिका में कहा गया है कि सरकारी वकीलों ने अपनी कानूनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने में चूक की, जिसके चलते एक नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ।
इसलिए, Nambi Narayanan और Maharaj v. AG Trinidad जैसे मामलों के आधार पर,
सरकार को मुआवज़ा देना चाहिए, ऐसा ॲड.. ओझा ने स्पष्ट किया है।
“यह सिर्फ मेरा मामला नहीं, लोकतंत्र और सच्चाई के लिए संघर्ष है” — ओझा ॲड.. निलेश ओझा ने दो टूक कहा:
“यह सिर्फ मेरे बचाव की बात नहीं है। यह लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आज़ादी और न्यायिक जवाबदेही की लड़ाई है। न्याय का मूल मंत्र है — सच्चाई को दबाया नहीं जाना चाहिए।”