न्यायाधीशों द्वारा गैरकानूनी आदेशों के माध्यम से किए जा रहे भ्रष्टाचार पर CJI सूर्यकांत की कड़ी टिप्पणी — बेईमानी या बाह्य प्रभाव से पारित आदेशों वाले न्यायाधीशों को कोई संरक्षण नहीं; निलंबित न्यायाधीश को राहत से इनकार
किसी प्रकरण की सुनवाई को बार-बार और अनावश्यक तारीखें देकर जानबूझकर लंबा करने तथा न्याय प्रक्रिया में विलंब करने वाले न्यायाधीश बर्खास्तगी के पात्र — CJI सूर्यकांत का महत्वपूर्ण निर्णय
सेवानिवृत्ति के निकट रहते हुए भ्रष्टाचार कर लगातार आदेश पारित करने वाले न्यायाधीशों को कड़ी फटकार, तथा उनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई की स्पष्ट चेतावनी।
[राजाराम भाटिया बनाम मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय, आदेश दिनांक 17.12.2025]
भ्रष्ट न्यायाधीश ‘राष्ट्र-विरोधी’ हैं — वे संवैधानिक शासन और राष्ट्रीय प्रगति के लिए गंभीर खतरा हैं: न्यायालय का स्पष्ट आदेश. [R. Rajaraman v. The Chief Engineer (2019 SCC OnLine Mad 4661).]
CJI सूर्यकांत का एक और ऐतिहासिक निर्णय
चौधरी बनाम राज्य (2020) 11 SCC 760 में, CJI सूर्यकांत ने यह स्पष्ट और निर्णायक सिद्धांत स्थापित किया कि जो न्यायाधीश:
• मामलों को आउट-ऑफ-टर्न सुनवाई के लिए लेते हैं, या
• किसी प्रकरण की सुनवाई को जानबूझकर टालते हैं और
• बार-बार व अनावश्यक तारीखें देकर न्याय प्रक्रिया में विलंब करते हैं,
वे न्यायाधीश बने रहने के योग्य नहीं होते और ऐसे आचरण के लिए पद से बर्खास्तगी के दायरे में आते हैं।
शक्ति का दुरुपयोग एवं न्यायिक बेईमानी
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अब स्पष्ट और स्थापित कानून के रूप में यह सिद्धांत तय कर दिया है कि जो न्यायाधीश—
• पक्षकारों की दलीलों की उपेक्षा करते हैं,
• अभिलेख पर उपलब्ध सामग्री को नज़रअंदाज़ करते हैं,
• बाध्यकारी नज़ीरों (Binding Precedents) पर विचार नहीं करते या उन्हें जानबूझकर छोड़ देते हैं, अथवा
• रिकॉर्ड से परे कारणों से किसी विशेष अधिवक्ता या प्रभावशाली व्यक्ति को लाभ पहुँचाने हेतु कानून के विरुद्ध आदेश पारित करते हैं,
वे “पद का दुरुपयोग (Fraud on Power)”, “न्यायिक बेईमानी”, “भ्रष्ट आचरण”, “न्यायिक दुस्साहस (Judicial Adventurism)” तथा “न्यायालय की अवमानना” के दोषी होते हैं और पद से हटाए जाने योग्य हैं।
जहाँ कोई आदेश स्वयं कानून और तथ्यों के प्रतिकूल हो, वहाँ अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। ऐसा अवैध आदेश ही अपने आप में सबसे बड़ा सबूत होता है, जिसके आधार पर विधि के अनुसार कार्रवाई की जा सकती है।
इस प्रकार का आचरण संविधान का उल्लंघन तथा राष्ट्रपति द्वारा दिलाई गई संवैधानिक शपथ का भंग है, जिसके परिणामस्वरूप ऐसे व्यक्ति का न्यायाधीश के रूप में पद पर बने रहने का अधिकार समाप्त हो जाता है।
भ्रष्ट और बेईमान न्यायाधीशों के विरुद्ध अभियोजन हेतु भारतीय न्याय संहिता / IPC की धाराएँ 166, 167, 218, 219, 220, 409, 466, 471, 474, 120B, 107, 109 आदि तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7A सहित स्पष्ट और प्रभावी वैधानिक प्रावधान उपलब्ध हैं।
इस सिद्धांत का समर्थन निम्नलिखित प्राधिकृत निर्णयों से होता है:
श्रीरंग वाघमारे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2019) 9 SCC 144;
मुज़फ्फर हुसैन बनाम राज्य (2022 SCC OnLine SC 567);
आर.आर. पारेख बनाम गुजरात उच्च न्यायालय (2016) 14 SCC 1;
रतीलाल झवेरभाई परमार बनाम गुजरात राज्य (2024 SCC OnLine SC 2985);
कामिसेट्टी पेड्डा वेंकट सुब्बम्मा बनाम चिन्ना कुम्मगंडला वेंकटैया (2004 SCC OnLine AP 1009);
विजय शेखर बनाम भारत संघ (2004) 4 SCC 666;
ओडिशा राज्य बनाम प्रतिमा मोहंती (2021 SCC OnLine SC 1222);
स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर बनाम मैथ्यू के.सी. (2018) 3 SCC 85।
Shrirang Waghmare v. State of Maharashtra (2019) 9 SCC 144;
Muzaffar Hussain v. State (2022 SCC OnLine SC 567);
R.R. Parekh v. High Court of Gujarat (2016) 14 SCC 1;
Ratilal Jhaverbhai Parmar v. State of Gujarat (2024 SCC OnLine SC 2985);
Kamisetty Pedda Venkata Subbamma v. Chinna Kummagandla Venkataiah (2004 SCC OnLine AP 1009);
Vijay Shekhar v. Union of India (2004) 4 SCC 666;
State of Odisha v. Pratima Mohanty (2021 SCC OnLine SC 1222);
State Bank of Travancore v. Mathew K.C. (2018) 3 SCC 85;
भ्रष्ट और बेईमान न्यायाधीशों के अभियोजन से संबंधित विस्तृत सामग्री एवं मॉडल ड्राफ्ट इंडियन बार एसोसिएशन की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं।
न्यायालय का स्पष्ट संदेश:
⚖️ न्यायिक स्वतंत्रता ईमानदारी की रक्षा के लिए है—भ्रष्टाचार के लिए नहीं।