मुंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चंद्रशेखर के आदेश ने आम नागरिकों और वकीलों को लाभ पहुँचाने वाला वह ऐतिहासिक सिद्धांत याद दिलाया कि गलत आदेश पारित करने वाले न्यायाधीशों, यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के जजों और सरकारी अधिकारियों से भी मुआवज़ा वसूला जा सकता है — “McLeod v. St. Aubyn (1899 AC 549)” का उल्लेख बन गया एक ऐतिहासिक मिसाल।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर स्ट. ऑबिन, जिन्होंने अवमानना से संबंधित गलत निर्णय लिखा था, उन्हें स्वयं प्रतिवादी के रूप में पक्षकार बनाया गया और यह निर्देश दिया गया कि वे जिस अधिवक्ता को गलत तरीके से न्यायालय की अवमानना का दोषी ठहराया गया था, उसे व्यक्तिगत रूप से क्षतिपूर्ति राशि अदा करें।
यह ऐतिहासिक निर्णय उन 15 अधिवक्ताओं के लिए अत्यंत सहायक साबित हुआ है, जिन्होंने हाल ही में ₹50 लाख की क्षतिपूर्ति की मांग करते हुए एक रिट याचिका दाखिल की है।
भारतीय बार एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष अधिवक्ता निलेश ओझा, सुप्रीम कोर्ट लॉयर्स एसोसिएशन के चेयरमैन अधिवक्ता ईश्वरलाल अग्रवाल, उपाध्यक्ष अधिवक्ता विजय कुरले, तथा वुमन विंग की अधिवक्ता निक्की पोकर ने इस ऐतिहासिक निर्णय का उल्लेख करने के लिए मुख्य न्यायाधीश चंद्रशेखर के प्रति गहरी कृतज्ञता व्यक्त की।
उन्होंने कहा कि इस निर्णय ने देशभर के अधिवक्ताओं और न्यायिक समुदाय को न्यायिक जवाबदेही और गलत न्यायिक आदेशों से क्षतिपूर्ति पाने के अधिकार के सिद्धांत से अवगत कराया है।
हाल ही में महिला अधिवक्ताओं सहित पंद्रह वकीलों ने ₹50 लाख की क्षतिपूर्ति की मांग करते हुए रिट याचिका दाखिल की है। उपरोक्त ऐतिहासिक निर्णय, जिनका उल्लेख और पुनः पुष्टि पांच न्यायाधीशों की पीठ ने की है, अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और ये याचिकाकर्ताओं को उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए न्यायिक क्षतिपूर्ति प्राप्त करने में महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करेंगे।
मुंबई:- माननीय मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रशेखर की अध्यक्षता में गठित पांच न्यायाधीशों की पीठ — जिसमें न्यायमूर्ति एम.एस. सोनक, रविंद्र घुगे, ए.एस. गडकरी और बी.पी. कोलाबावाला शामिल थे — ने 17 सितंबर 2025 को एक अवमानना प्रकरण पर निर्णय देते हुए दो ऐतिहासिक प्रिवी काउंसिल के फैसलों का उल्लेख किया:
1. McLeod v. St. Aubyn (1899 AC 549)
2. Ambard v. Attorney General of Trinidad and Tobago (1936 AC 322)
इन दोनों निर्णयों ने न्यायिक जवाबदेही के उस वैश्विक सिद्धांत की नींव रखी, जिसके अनुसार यदि कोई मुख्य न्यायाधीश या न्यायाधीश गलत अथवा दुर्भावनापूर्ण आदेश पारित करता है जिससे किसी नागरिक या अधिवक्ता को हानि होती है, तो वह व्यक्तिगत रूप से क्षतिपूर्ति (compensation) देने का उत्तरदायी होता है।
McLeod v. St. Aubyn (1899 AC 549) का निर्णय
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर स्ट. ऑबिन ने अवमानना से संबंधित एक गलत आदेश पारित किया था।
प्रिवी काउंसिल ने उस निर्णय को रद्द करते हुए मुख्य न्यायाधीश स्ट. ऑबिन को व्यक्तिगत रूप से प्रतिवादी बनाया और यह निर्देश दिया कि वे स्वयं उस अधिवक्ता को क्षतिपूर्ति राशि अदा करें, जिसे अवैध रूप से न्यायालय की अवमानना का दोषी ठहराया गया था।
यह ऐतिहासिक निर्णय इस सिद्धांत को स्थापित करता है कि देश का सर्वोच्च न्यायाधीश भी व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है, जब उसकी न्यायिक कार्यवाही या गलत आदेश के कारण किसी नागरिक, अधिवक्ता या वादी को अवैधता, मनमानी या दुर्भावनापूर्ण आचरण से वास्तविक हानि पहुँचती है।
केरल उच्च न्यायालय ने Mohd. Nazer M.P. v. State, 2022 SCC OnLine Ker 7434 के मामले में, एक ऐसे न्यायाधीश के खिलाफ दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 340 के तहत जांच के आदेश दिए, जिस पर न्यायालयीन अभिलेखों (judicial records) की जालसाजी का आरोप था। न्यायालय ने न केवल जांच का निर्देश दिया, बल्कि उस न्यायाधीश के निलंबन (suspension) का भी आदेश पारित किया — यह स्पष्ट करते हुए कि न्यायिक अधिकारी भी कानून से ऊपर नहीं हैं।
इसी प्रकार, S.P. Gupta v. Union of India, AIR 1982 SC 149 के ऐतिहासिक मामले में, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को भी प्रतिवादी बनाया गया और उन्होंने निजी वकील (private counsel) के माध्यम से अपना पक्ष प्रस्तुत किया। इस निर्णय ने पुनः यह सिद्ध किया कि संवैधानिक पदों पर आसीन न्यायाधीश भी कानून के प्रति जवाबदेह (accountable under law) होते हैं।
Ambard v. Attorney General (1936 AC 322) का सिद्धांत
इस मामले में प्रिवी काउंसिल ने त्रिनिदाद के सुप्रीम कोर्ट की कड़ी आलोचना की, क्योंकि उसने एक समाचार संपादक को मात्र इस आधार पर दोषी ठहराया था कि उसने न्यायालय के मनमाने और असंगत आदेशों पर सत्य टिप्पणी प्रकाशित की थी।
प्रिवी काउंसिल ने कहा कि जब न्यायालय स्वयं यह नहीं कह सकता कि प्रकाशन असत्य है, तो संपादक को दोषी ठहराना गंभीर अन्याय और अवमानना अधिकार के दुरुपयोग के समान है।
इस निर्णय में कहा गया कि न्यायालय ने अवमानना अधिकार के उद्देश्य को गलत समझा और उसे सार्वजनिक आलोचना से बचने के लिए गलत तरीके से प्रयोग किया।
परिणामस्वरूप, संपादक की सजा रद्द की गई और अटॉर्नी जनरल को आदेश दिया गया कि वे सभी न्यायालयों में हुए मुकदमों का खर्च संपादक को लौटाएं।
यह निर्णय पुनः स्थापित करता है कि न्यायिक कार्यों की सत्य आलोचना अवमानना नहीं होती, और न्यायाधीश भी सार्वजनिक जवाबदेही से ऊपर नहीं हैं।
भारत में क्षतिपूर्ति का संवैधानिक कानून
भारत में भी यह सिद्धांत पूर्ण रूप से मान्य है कि राज्य को नागरिक के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर क्षतिपूर्ति देनी ही होगी, चाहे वह उल्लंघन किसी न्यायिक या प्रशासनिक आदेश से क्यों न हुआ हो।
प्रमुख निर्णय:
1. Ramesh Lawrence Maharaj v. Attorney General of Trinidad & Tobago (1978) 2 WLR 902
इसमें यह घोषित किया गया कि न्यायाधीश राज्य का अंग होने के कारण, उसके गलत आदेश से हुई हानि की क्षतिपूर्ति राज्य को देनी होगी।
2. Nilabati Behera v. State of Orissa (1993) 2 SCC 746,
D.K. Basu v. State of West Bengal (1997) 1 SCC 416,
People’s Union for Civil Liberties v. Union of India (1997) 3 SCC 433
— इन सभी में सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि राज्य नागरिक के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए क्षतिपूर्ति देने के लिए बाध्य है, और राज्य बाद में दोषी अधिकारियों से यह राशि वसूल सकता है।
3. Lucknow Development Authority v. M.K. Gupta, AIR 1994 SC 787
में कहा गया कि —
“जब राज्य की ओर से क्षतिपूर्ति का आदेश दिया जाता है, तब अंततः उसका बोझ करदाताओं पर पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि यह राशि संबंधित दोषी अधिकारियों से वसूली जाए।”
4. Directions in the Matter of Demolition of Structures, In re, (2025) 5 SCC 1,
में मुख्य न्यायाधीश भूषण गवई ने कहा:
“व्यक्ति के अधिकारों का सम्मान ही लोकतंत्र की सच्ची नींव है। राज्य को अपने अधिकारियों द्वारा नागरिकों के अधिकारों को हुई क्षति की भरपाई करनी चाहिए, और वह बाद में उन अधिकारियों से वसूली कर सकता है।”
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पुनः पुष्टि
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति की 17-सदस्यीय पीठ, जिसमें भारत के न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती भी शामिल थे, ने Anthony Michael Emmanuel Fernando v. Sri Lanka (2005 SCC OnLine HRC 22) मामले में यह स्पष्ट रूप से कहा कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश द्वारा पारित अवैध अवमानना आदेश मनमाना, अत्याचारी तथा अंतरराष्ट्रीय नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अनुबंध (ICCPR) के अनुच्छेद 9 का उल्लंघन है।
पीठ ने यह भी निर्देश दिया कि राज्य पीड़ित व्यक्ति को उचित क्षतिपूर्ति प्रदान करे तथा भविष्य में ऐसे मामलों के लिए सुप्रीम कोर्ट के अवमानना आदेशों के विरुद्ध अपील की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए।
वर्तमान में 15 अधिवक्ताओं की याचिका
हाल ही में पंद्रह अधिवक्ताओं, जिनमें महिला वकीलें भी शामिल हैं, ने ₹50 लाख की क्षतिपूर्ति के लिए एक रिट याचिका दाखिल की है।
माननीय पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा उद्धृत उपरोक्त ऐतिहासिक निर्णय इन याचिकाकर्ताओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और उन्हें उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए उचित क्षतिपूर्ति दिलाने में सहायक सिद्ध होंगे।
वकील संघों की प्रतिक्रिया
भारतीय बार एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष अधिवक्ता निलेश ओझा, सुप्रीम कोर्ट लॉयर्स एसोसिएशन के चेयरमैन अधिवक्ता ईश्वरलाल अग्रवाल, तथा उपाध्यक्ष अधिवक्ता विजय कुरले, और वुमन विंग की अधिवक्ता निक्की पोकर ने मुख्य न्यायाधीश चंद्रशेखर के प्रति गहरी कृतज्ञता व्यक्त की कि उन्होंने इस ऐतिहासिक निर्णय का उल्लेख कर देशभर के अधिवक्ताओं और न्याय समुदाय को न्यायिक जवाबदेही के मूल सिद्धांत से अवगत कराया।
निष्कर्ष
मुख्य न्यायाधीश चंद्रशेखर द्वारा McLeod v. St. Aubyn और Ambard v. Attorney General का उल्लेख केवल एक अवमानना प्रकरण का हिस्सा नहीं, बल्कि न्यायिक पारदर्शिता और संविधान सर्वोच्चता की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है।
यह आदेश आने वाले समय में उन सभी के लिए प्रेरणा बनेगा जो मानते हैं कि —
“कोई भी व्यक्ति, यहाँ तक कि मुख्य न्यायाधीश भी, संविधान से ऊपर नहीं है।”