बॉम्बे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस चंद्रशेखर ने सुप्रीम कोर्ट की फुल बेंच के आदेशों को मानने से किया इनकार, वकीलों में मचा हड़कंप।

सुप्रीम कोर्ट लॉयर्स एसोसिएशन (SCLA) ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर चीफ जस्टिस चंद्रशेखर और अन्य जजों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई और उनके न्यायिक कार्य वापस लेने की मांग की है।
क़ानून साफ़ कहता है — Contempt of Courts Act, 1971 की धारा 2(b), 12 और 16 के तहत अगर कोई हाईकोर्ट जज सुप्रीम कोर्ट की बाइंडिंग गाइडलाइंस के ख़िलाफ़ आदेश देता है, तो वह खुद कॉन्टेम्प्ट ऑफ कोर्ट का दोषी होगा। किसी भी नागरिक को ऐसे जजों के ख़िलाफ़ अवमानना याचिका दाख़िल करने का अधिकार है। (Re: C.S. Karnan (2017) 7 SCC 1; Rabindra Nath Singh v. Rajesh Ranjan (2010) 6 SCC 417; M/s. Spencer & Co. Ltd. v. Vishwadarshan Distributors (1995) 1 SCC 259)।
मुंबई | 17 सितम्बर 2025: बॉम्बे हाईकोर्ट की पांच जजों की बेंच, जिसकी अध्यक्षता चीफ जस्टिस चंद्रशेखर ने की, ने सुओ मोटू कॉन्टेम्प्ट पिटीशन नं. 01/2025 में वकील निलेश ओझा की अर्जी खारिज कर दी और उल्टा उन पर नोटिस जारी कर दिया।
सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि पांच जजों की बेंच ने सुप्रीम कोर्ट की फुल बेंच के ऐतिहासिक फैसले बाल ठाकरे बनाम हरीश पिंपलखुटे (2005) 1 SCC 254 और बड़े बेंच के अन्य बाध्यकारी फैसलों को मानने से साफ़ इनकार कर दिया।
SCLA के चेयरमैन एडवोकेट इश्वरलाल अग्रवाल ने कड़ा ऐतराज़ जताते हुए कहा:
“यह बेहद शर्मनाक है कि बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को यह बुनियादी कानून तक याद नहीं कि बड़े बेंच का फैसला बाध्यकारी होता है और छोटे बेंच का निर्णय क़ानूनी मान्यता नहीं रखता।”
सुप्रीम कोर्ट की साफ़ चेतावनी
सुप्रीम कोर्ट ने P.N. Duda (1988) और बिमन बसु (2010) में स्पष्ट कहा कि C.K. Daphtary (1971) का फैसला Contempt of Courts Act, 1971 लागू होने के बाद से स्टैच्यूटरी तौर पर ओवररूल्ड है।
बाल ठाकरे केस (2005) में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा कि Pritam Pal अब लागू नहीं है और सभी हाईकोर्ट्स को P.N. Duda के मुताबिक़ नियम बनाने का आदेश दिया।
इसके बावजूद बॉम्बे हाईकोर्ट ने Re: Vijay Kurle (2021) के दो जजों के विवादित फैसले को मान्य ठहरा दिया और बड़े बेंच के बाल ठाकरे केस (2005) के बाध्यकारी निर्णय को मानने से साफ़ इनकार कर दिया।
लीगल एक्सपर्ट्स की राय
वरिष्ठ अधिवक्ता असीम पंड्या, जो कॉन्टेम्प्ट लॉ के अग्रणी विशेषज्ञ और Law of Contempt पर मानक ग्रंथ के लेखक हैं, ने अपने LiveLaw लेख (16 सितम्बर 2020) में विस्तार से बताया कि Re: Vijay Kurle (2020) का फैसला ग़ैरक़ानूनी है और इसे बाइंडिंग लॉ नहीं माना जा सकता।
भारतीय न्याय संहिता (BNS) के प्रावधानों तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित नियमों के अनुसार, कोई भी न्यायाधीश जो सुप्रीम कोर्ट के बाध्यकारी निर्णय को मानने से इंकार करता है, वह न्यायिक अनुशासन का गंभीर उल्लंघन करता है और उस पर आपराधिक दंड लागू होता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 219 (अब BNS में समरूप प्रावधान) के तहत, ऐसे न्यायाधीश को सात वर्ष तक की सज़ा दी जा सकती है।