भारत के सर्वोच्च न्यायालय में ऐतिहासिक संकेत— CJI सुर्य कांत का राष्ट्रीय न्यायिक नीति का प्रस्ताव- 25 हाईकोर्ट व SC की बेंचों के बीच फैसलों में मतभेद खत्म हों, एकरूपता बने — इंडियन बार एसोसिएशन ने किया स्वागत
मुख्य न्यायाधीश सुर्य कांत अब भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में सबसे सुधारवादी व दूरदर्शी CJI के रूप में उभरते दिख रहे हैं। उन्होंने वह विषय छुआ, जिसने दशकों से आम नागरिक और युवा वकील को वास्तविक, समान और पूर्वानुमेय न्याय से वंचित रखा — एक ही कानून पर अलग-अलग अदालतों के अलग-अलग फैसले।
CJI ने साफ कहा — देश की 25 हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की कई बेंच जब अलग-अलग दिशा में फैसले देंगी, तो न्याय किस्मत बन जाता है, कानून नहीं। इसलिए अब एक राष्ट्रीय न्यायिक नीति (National Judicial Policy) की जरूरत है ताकि पूरे देश की अदालतें एक ही संवैधानिक धुन पर न्याय कर सकें।
“न्याय एक सिम्फनी होना चाहिए — अनेक आवाज़ें, अनेक भाषाएँ, पर एक ही संवैधानिक सुर।” – CJI सुर्य कांत
⚖ सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों ने भी यह सिद्धांत मजबूत किया :- Supreme Court ने हाल के ऐतिहासिक निर्णयों– Ratilal Jhaverbhai Parmar v. State of Gujarat, 2024; Rohan Vijay Nahar v. State, 2025; Vanashakti v. Union of India, 2025; — में साफ निर्देश दिया है कि समान पीठ (Co-ordinate Benches) एक-दूसरे से टकराने वाले फैसले नहीं दे सकतीं। जो फैसला बड़ी या समान पीठ के सिद्धांत के खिलाफ हो — वह Per Incuriam माना जाएगा और निरस्त किया जा सकता है।
यह सिद्धांत Pradip J. Mehta v. CIT (2008) में भी दोहराया गया — हाईकोर्ट बिना मजबूत कानूनी कारण बताए अन्य हाईकोर्ट के मत से अलग नहीं जा सकता। ज्यूडिशियल कंसिस्टेंसी कोई विकल्प नहीं — यह संवैधानिक आदेश है।
Supreme Court ने यह भी साफ़ शब्दों में कहा है कि Selective Law Application सिर्फ़ एक साधारण भूल या Error of Judgment नहीं बल्कि यह Misconduct—यानी न्यायिक दुराचरण है; जो न्यायाधीश जानबूझकर बाध्यकारी कानून को लागू नहीं करता, वह अपनी संवैधानिक शपथ का उल्लंघन करता है और ऐसे पद पर बने रहने का नैतिक व कानूनी अधिकार खो देता है। ऐसा आचरण केवल अनुचित नहीं बल्कि दंडनीय अपराध है, और ऐसे मामलों में न्यायाधीश के विरुद्ध Contempt of Courts Act, 1971 की धारा 2(b), 12 एवं 16 तथा Bharatiya Nyaya Sanhita (BNS) की धारा 198 और 257 के तहत कार्रवाई की जा सकती है। संदेश एकदम स्पष्ट है—न्यायाधीश भी कानून से ऊपर नहीं; सर्वोच्च है केवल कानून और संविधान, पद नहीं।
इंडियन बार एसोसिएशन का समर्थन — “न्यायपालिका को असली उपचार मिला”
इंडियन बार एसोसिएशन ने CJI के इस रुख को ऐतिहासिक, आवश्यक और जनकेंद्रित बताया।
अधिवक्ता निलेश ओझा, राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा:
“CJI सुर्या कांत ने बीमारी भी पहचानी — और इलाज भी बताया।जब अदालतें मिसालों का पालन करेंगी, तब न्याय अनुमान नहीं — सिद्धांत पर मिलेगा।”
IBA का मानना है कि यह बदलाव—
✔ फैसलों में मनमानी और भ्रष्टाचार रोकेगा
✔ न्यायिक अहंकार की काट बनेगा
✔ आम आदमी के लिए न्याय पूर्वानुमेय और समान होगा
“न्यायाधिकार कानून के भीतर है — उससे ऊपर नहीं।” — Adv. Ojha
🔥 यह सिर्फ एक भाषण नहीं — नए न्याय-युग की घोषणा है
इस घोषणा से साफ संकेत मिलता है—
📌 टकराते फैसले अब खत्म होंगे
📌 कानून हर अदालत में एक-सा लागू होगा
📌 जनता का भरोसा न्याय व्यवस्था पर और मजबूत होगा
भारत अब Judicial Renaissance के द्वार पर खड़ा है। और इस बदलाव का स्वागत कानूनी बिरादरी से लेकर आम जनता तक हर स्तर पर गूंज रहा है।
यह फैसला सीधे उस पुरानी न्याय-व्यवस्था की बिमारी पर वार करता है, जिसने सालों तक आम नागरिक और जूनियर वकील को न्याय मिलने के नाम पर सिर्फ इंतज़ार, अनिश्चितता और निराशा दी।
जिस सिस्टम में कभी एक अदालत कुछ और कहती थी तो दूसरी उलटा फ़ैसला सुना देती थी — उसी असंगति ने न्याय को किस्मत का खेल बना दिया। लोग लड़ते रहे, फाइलें घूमती रहीं, पीढ़ियाँ गुजर गईं — लेकिन कानून एकसमान नहीं बोला।
यही वजह है कि जनता अदालत के दरवाज़े पर खड़ी रहते हुए भी न्याय की ठोस गारंटी नहीं पा सकी। कोई फैसला किस आधार पर मिलेगा — कानून पर या जज के नज़रिये पर — यह अक्सर अनिश्चित रहा। और यही वह बीमारी थी, जो सिस्टम को सालों से खोखला कर रही थी।
CJI का यह कदम सीधे इसी जड़ पर चोट करता है — क्योंकि जब फैसले एक जैसे होंगे, नियम सभी पर समान चलेंगे, तब ही आम नागरिक, गरीब litigant से लेकर नए वकील तक — सबको कानून पर भरोसा रहेगा, न कि अदालत के भाग्य पर।
CJI का यह रुख सुप्रीम कोर्ट की हाल की सोच से पूरी तरह मेल खाता है—जहाँ न्यायिक अनुशासन और जवाबदेही को सबसे ऊपर रखा गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने Ratilal Jhaverbhai Parmar (2024), Rohan Vijay Nahar (2025) और Vanashakti (2025) जैसे महत्वपूर्ण मामलों में साफ-साफ कहा है:
🔹 एक ही स्तर (Co-ordinate Bench) की पीठें अलग-अलग या उलटे फैसले नहीं दे सकतीं।
🔹 बड़ी या बराबरी की पीठ ने जो कानून तय किया है, वही अंतिम होगा।
ऐसे फैसले जो बड़ी या समान पीठ के कानून को नजरअंदाज कर दिए जाएँ—
वे Per Incuriam कहलाते हैं, मतलब कानूनी तौर पर मान्य नहीं, उनकी मिसाल मूल्य शून्य, और सिर्फ इसी आधार पर वापस भी पलटे जा सकते हैं।
इसके आगे सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ कर दिया:
जो जज सुप्रीम कोर्ट के बाइंडिंग फैसलों को जानबूझकर नजरअंदाज करता है—वह अपनी शपथ तोड़ता है और न्यायिक अनुशासन का उल्लंघन करता है।
इसी को आगे Pradip J. Mehta (2008) में और मजबूत किया गया, जहाँ कहा गया—
👉 कोई भी हाईकोर्ट दूसरे हाईकोर्ट से अलग निर्णय तभी ले सकता है, जब उसके पीछे ठोस कानूनी आधार दर्ज हों। यानी— न्यायिक स्थिरता कोई विकल्प नहीं, ये संविधान का आदेश है।
⚖ यह भाषण नहीं—भारतीय न्यायपालिका के नए युग की घोषणा है. अब संकेत बिलकुल साफ हैं—
📌 Conflicting Judgments अब समाप्त होने की दिशा में पहला कदम
📌 Uniform Precedent = आम आदमी के लिए वास्तविक समान न्याय
📌 Judicial Accountability अब अपवाद नहीं — अनिवार्यता होगी
भारत एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है।अक्सर केवल न्याय दिया नहीं जाता — परिभाषित किया जाता है। और यह घोषणा उसी नए न्याय-युग की दस्तक है।
इन सभी कानूनी प्रावधानों का संयुक्त संदेश बिल्कुल स्पष्ट है — न्यायपालिका की निरंकुशता का युग समाप्त हो चुका है। कानून अब नागरिक और संविधान के साथ खड़ा है — शक्ति, पद या प्रतिरक्षा के साथ नहीं।
इसके समान ही, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने भी Scheuer v. Rhodes, 416 U.S. 232 (1974) में एक ऐतिहासिक सिद्धांत स्थापित किया, जिसे आज भी विश्व-स्तर पर स्वीकार किया जाता है। न्यायालय ने कहा:
“यदि कोई राज्य अधिकारी संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करते हुए अधिकार का उपयोग करता है, तो वह तुरंत अपने सार्वजनिक पद की प्रतिरक्षा खो देता है
और अपने निजी दायित्व में उत्तरदायी होता है। राज्य उसे संविधान के समक्ष जवाबदेही से बचाने के लिए कोई प्रतिरक्षा प्रदान नहीं कर सकता।न्यायाधीश भी जब कानून-विरोध में कार्य करता है, तो वह न्यायाधीश नहीं —मात्र एक निजी व्यक्ति होता है।”
📌 बाध्यकारी न्यायनज़ीर (Binding Precedents) का पालन न करने वाले न्यायाधीशों पर होने वाली कार्रवाई :- सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठों एवं संविधान पीठों द्वारा यह विधि निर्विवाद रूप से स्थापित है कि कोई भी न्यायाधीश यदि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून अथवा Ratio Decidendi की अवहेलना करता है, उसे लागू करने से इंकार करता है, या जानबूझकर विपरीत आदेश पारित करता है — तो वह अपने संवैधानिक दायित्व, न्यायिक शपथ और पद-विश्वास का उल्लंघन करता है।
हर न्यायाधीश का प्रथम कर्तव्य है कि:
🔹 पक्षकारों द्वारा उद्धृत Binding Precedents को ध्यानपूर्वक पढ़े
🔹 Ratio Decidendi की पहचान करे
🔹 और यदि किसी भिन्न दृष्टिकोण पर जाना हो तो मजबूत, तार्किक और विस्तृत कारण लिखित में दर्ज करे
सतही तर्क, नाममात्र का उल्लेख, दिखावटी विश्लेषण, कृत्रिम तथ्य-भेद (Artificial Distinction) या “केवल संदर्भ” देकर उल्टा निर्णय देना — न केवल अस्वीकार्य है, बल्कि इसे न्यायिक दुराचार, बदनीयती, विकृति और contempt माना गया है।
⚖ सुनवाई का अवसर देना अनिवार्य सिद्धांत
यदि न्यायालय स्वयं किसी निर्णय या सिद्धांत पर भरोसा करना चाहता है जो पक्षकारों ने उद्धृत नहीं किया है, तो वह पक्षकारों को सुनने का अवसर देना संवैधानिक रूप से अनिवार्य है।
ऐसा अवसर न देना —
✔ प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन है (Audi Alteram Partem)
✔ आदेश स्वतः ही दूषित व रद्दयोग्य हो जाता है
✔ Review / Recall / Appeal में ऐसा आदेश तत्काल पलटा जा सकता है
⚠ न्यायिक शपथ-भंग = संविधान का उल्लंघन
जब न्यायाधीश जानबूझकर Binding Precedents की अवहेलना करता है, तो:
📍 यह Article 141 व 144 का उल्लंघन है
📍 यह न्यायिक शपथ-भंग है
📍 यह Judicial Misconduct है
📍 और Impeachment तक की प्रक्रिया को जन्म दे सकता है
(Articles 124/217 read with Judges (Inquiry) Act)
📜 ऐसे न्यायाधीशों पर दंडात्मक कार्रवाई — कानून स्पष्ट
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार स्पष्ट किया है: Binding Precedent न मानने वाले न्यायाधीश के विरुद्ध Contempt proceedings + Departmental action दोनों साथ-साथ संभव हैं। “मुझे पता नहीं था” — न्यायाधीश के लिए भी मान्य बचाव नहीं। ऐसा आचरण न्यायिक निर्णयों में इन शब्दों से वर्णित किया गया है:
न्यायिक शब्दावली | अर्थ |
Judicial Adventurism | –मनमानी न्यायिक साहसिकता |
Legal Malice– | विधिक दुर्भावना |
Corrupt motive— | भ्रष्ट मंशा |
Perversity— | विकृत न्याय |
Fraud on Power— | शक्ति का दुरुपयोग |
Misuse of Discretion | —विवेकाधिकार का दुरुपयोग |
🛑 कई मामलों में न्यायाधीशों पर आपराधिक अभियोजन तक हुआ
जब न्यायिक शक्ति का दुरुपयोग कर किसी आरोपी को अवैध लाभ दिया जाता है,
तो न्यायाधीश पर भी फौजदारी केस चल सकता है, भले ही आदेश अलग से चुनौती न दिया गया हो।
✔ निर्णय रद्द करना और
✔ भ्रष्टाचार पर दंड —
दोनों स्वतंत्र कार्यवाहियाँ हैं और दोनों साथ-साथ चल सकती हैं।
🟥 आरोप सिद्ध होने पर न्यायाधीश पर लागू दंड — भारतीय न्याय संहिता (BNS)
BNS की संबंधित धाराएं: § 198, 201, 228, 256, 257, 258, 336(2), 337, 316(5), 356(2)&(3), 352 BNS
IPC में इनके समतुल्य थे: 166, 167, 192, 193, 218, 219, 220, 465, 466, 409, 500, 501, 504, 120B, 34, 109 IPC
🟥 भ्रष्ट लाभ पहुँचाने वाले न्यायालयीय दुरुपयोग पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम भी लागू
Section 7A — Prevention of Corruption (Amendment) Act 2018
▶ अवैध लाभ पहुँचाने/प्राप्त करने या प्रभाव डालकर आदेश करवाने पर सज़ा:
न्यूनतम 3 वर्ष — अधिकतम 7 वर्ष + जुर्माना