वरिष्ठ अधिवक्ता हारीश साल्वे ने अधिवक्ता प्रशांत भूषण से संबंधित न्यायालय-अवमानना प्रकरण में स्वयं को अमिकस क्यूरी (Amicus Curiae) के पद से अलग कर लिया था, जब यह स्पष्ट हुआ कि “अवमानना एक आपराधिक मामला (criminal case) होता है।” और ऐसे मामलों में केवल राज्य के विधि अधिकारी—जैसे अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल—ही अभियोजन में न्यायालय की सहायता कर सकते हैं।
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ही सिद्धांत आज पुनः चर्चा के केंद्र में है, क्योंकि बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा दो निजी अधिवक्ताओं को अमिकस क्यूरी नियुक्त करना, जबकि एडवोकेट जनरल पहले से ही नियुक्त हैं, और चार-चार वकीलों को अभियोजन की ओर से एक साथ बहस की अनुमति देना, इन आदेशों को अधिवक्ता निलेश ओझा ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है तथा इसे उनकी पहले से स्वीकृत रिट याचिका के साथ टैग करने का अनुरोध किया है।
मामला पहले से ही सुप्रीम कोर्ट में लंबित
यही मुद्दा अधिवक्ता विजय कुरले, निलेश ओझा, और रशीद खान पठान की उन रिट याचिकाओं में पहले से उठाया गया है, जिन्हें अधिवक्ता प्रशांत भूषण की रिट याचिका के साथ टैग किया गया है।
ये सभी चारों रिट याचिकाएँ सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकार की जा चुकी हैं और रजिस्ट्री के अनुसार 26.11.2025 को न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरश की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध होने की संभावना है।
अमिकस सिद्धार्थ लूथरा का हटाया जाना
सुप्रीम कोर्ट की एक तीन-सदस्यीय पीठ पहले ही निलेश ओझा और अन्य के अवमानना मामले में अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा को अमिकस क्यूरी के रूप में जारी रखने से इनकार कर चुकी है।
बाद में, Re: Vijay Kurle प्रकरण में उन्हें अपमानजनक परिस्थितियों में अमिकस पद से हटना पड़ा, जब बड़ी पीठ ने स्पष्ट किया कि—
“क्रिमिनल कंटेम्प्ट का अभियोजन केवल राज्य के विधि अधिकारियों द्वारा ही किया जा सकता है; अतः अमिकस के रूप में केवल अटॉर्नी जनरल ही न्यायालय की सहायता जारी रखेंगे।”
🔷 १६ अधिवक्ताओं की शिकायत — आपराधिक अवमानना एवं पेशेवर कदाचार
इस बीच १६ अधिवक्ताओं ने वरिष्ठ अधिवक्ता डेरियस खंबाटा तथा मिलिंद साथे के विरुद्ध आपराधिक अवमानना और पेशेवर कदाचार की कार्यवाही की मांग करते हुए याचिकाएँ दायर की हैं। आरोप हैं कि दोनों ने—
· ओवररूल्ड (अप्रभावी) निर्णयों पर भरोसा किया,
· बाध्यकारी (Binding) संविधान पीठ के निर्णयों को छुपाया,
· सीजेआई कार्यालय द्वारा भेजे गए महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों को दबाया,
· और इन सभी आधारों पर अन्य अधिवक्ताओं को गलत व दुर्भावनापूर्ण तरीके से फँसाने का प्रयास किया।
🔷 अधिवक्ता निलेश ओझा द्वारा दायर अपील
अधिवक्ता निलेश ओझा ने बॉम्बे हाईकोर्ट की पाँच-न्यायाधीशीय पीठ द्वारा पारित आदेश दिनांक 17.09.2025 और 16.10.2025 के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की है।
उन्होंने अनुरोध किया है कि इस अपील को उनकी पहले से स्वीकार की गई रिट (Crl.) No. 244/2020 के साथ टैग किया जाए, क्योंकि दोनों मामलों में अनेक संवैधानिक प्रश्न समान हैं।
इन रिटों में ऐतिहासिक प्रश्न उठाए गए हैं—विशेषकर यह कि,
सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवमानना सजा के विरुद्ध वैधानिक अपील के अधिकार को समाप्त करना कैसे नागरिकों के मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) का उल्लंघन है।
🔷 अपील में उठाई गई अतिरिक्त गंभीर त्रुटियाँ
अपील में हाईकोर्ट की कार्यवाही के कई गंभीर और संवैधानिक रूप से अपात्र पहलुओं को रेखांकित किया गया है—जिनमें प्रमुख हैं:
(i) बाध्यकारी नज़ीरों को मानने से इंकार
हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने बार-बार सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट और बाध्यकारी निर्णयों (Binding Precedents) का पालन करने से इनकार किया—जो संविधान के अनुच्छेद 141 का खुला उल्लंघन है।
(ii) सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देने पर वकीलों को धमकी :- मुख्य न्यायाधीश चंद्रशेखर द्वारा वकीलों को यह धमकी दी गई कि—
“यदि आप सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णयों का हवाला देंगे, तो आपको हिरासत में लिया जाएगा।”
यह न्यायालयीन गरिमा तथा Article 19(1)(a), Article 21—दोनों का घोर उल्लंघन है।
(iii) हितों के टकराव के बावजूद स्वयं ही सुनवाई करना :- स्पष्ट हित-संघर्ष (Conflict of Interest) के बावजूद मुख्य न्यायाधीश ने:
· मामले से स्वयं को अलग (Recuse) करने से मना किया,
· और उसी मामले की सुनवाई स्वयं जारी रखी—जो नैसर्गिक न्याय (Natural Justice) का स्पष्ट उल्लंघन है।
(iv) एडवोकेट जनरल की नियुक्ति के बाद भी दो निजी अमिकस की अवैध नियुक्ति :- एडवोकेट जनरल पहले से नियुक्त होने के बावजूद—
· दो निजी अधिवक्ताओं को अमिकस क्यूरी नियुक्त किया गया,
· जबकि क्रिमिनल अवमानना में केवल State Law Officer ही अभियोजन में सहायता कर सकता है।
(v) एक ही अभियोजन पक्ष से चार-चार वकीलों को तर्क रखने की अनुमति :- अभियोजन पक्ष की ओर से— सरकारी वकीलों, एवं निजी अमिकस— कुल चार वकीलों को एक साथ बहस करने की अनुमति देना न केवल न्यायिक प्रक्रिया के मूल ढांचे के विरुद्ध है बल्कि Article 14 और Article 21—दोनों का खुला उल्लंघन है।