न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे की मुश्किलें बढ़ीं – हाईकोर्ट की पाँच सदस्यीय खंडपीठ ने भ्रष्टाचार आरोपों पर अधिवक्ता से जवाब तलब किया

मुंबई, 17 सितम्बर 2025: एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में, बॉम्बे हाईकोर्ट की पाँच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने एडवोकेट निलेश ओझा को नोटिस जारी किया है। यह नोटिस उस संदर्भ में जारी किया गया है जिसमें उन्होंने न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे के खिलाफ भ्रष्टाचार, झूठे साक्ष्य, जाली दस्तावेज़ और पक्षपात के आरोप लगाए हैं।
हालाँकि 17.09.2025 का आदेश कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार कुछ गंभीर भूलों से भरा हुआ है, फिर भी इसका समग्र प्रभाव न्यायमूर्ति डेरे को कठिनाई में डालने वाला माना जा रहा है। आदेश ने औपचारिक रूप से एड. ओझा को अपने आरोपों के समर्थन में दस्तावेज़ी प्रमाण और अन्य सबूत पेश करने की अनुमति दी है, जिससे इन आरोपों की न्यायिक जाँच का रास्ता खुल गया है।
आदेश की सकारात्मक पहलू
कानूनी पर्यवेक्षकों का कहना है कि आदेश का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसने एड. ओझा को न्यायमूर्ति डेरे के खिलाफ अपना पक्ष और प्रमाण प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया। खंडपीठ ने यह भी दर्ज किया कि आरोपों का निर्णय किया जा सकता है भले ही न्यायमूर्ति डेरे को पक्षकार के रूप में न जोड़ा जाए या उन्हें गवाह के कटघरे में न बुलाया जाए।
भारतीय वकील एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की संघटना के अनुसार यह मान्यता बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि न्यायमूर्ति डेरे द्वारा की गई कथित परिजरी (Perjury) और फर्जीवाड़ा पहले से ही सीबीआई और पुलिस की रिपोर्टों तथा न्यायालय के आदेशों से स्पष्ट है।
त्रुटियाँ और विवाद
साथ ही, आदेश की वैधता को लेकर गंभीर चिंताएँ भी उठी हैं। बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस आदेश को पारित करते समय सर्वोच्च न्यायालय की फुल बेंच के बाध्यकारी निर्णय Bal Thackrey v. Harish Pimpalkhute, (2005) 1 SCC 254 को दरकिनार कर दिया और उसकी बाध्यकारी गाइडलाइंस का पालन करने से इंकार कर दिया। आलोचकों का कहना है कि यह सीधा न्यायिक शिष्टाचार (Judicial Propriety) और संविधान के अनुच्छेद 141 का उल्लंघन है, जिसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होता है।
एक और विवादास्पद निष्कर्ष यह था कि कॉन्टेम्नर (इस मामले में एड. ओझा) गवाहों से जिरह नहीं कर सकता। विशेषज्ञों का कहना है कि यह निष्कर्ष सर्वोच्च न्यायालय की फुल बेंच जजमेंट P. Mohanraj v. Shah Brothers Ispat Pvt. Ltd., (2021) 6 SCC 258 के विपरीत है, जहाँ यह स्पष्ट किया गया था कि गंभीर आरोपों के मामलों में गवाह से जिरह का अधिकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का एक अनिवार्य हिस्सा है।
आगे का रास्ता
यह मामला पूरे देश में बारीकी से देखा जा रहा है क्योंकि यह न्यायिक जवाबदेही और पदासीन न्यायाधीशों के खिलाफ दुराचार के आरोपों से निपटने के तरीके पर गहरे प्रश्न खड़े करता है। जबकि आदेश ने निस्संदेह सच को रिकॉर्ड पर लाने का अवसर दिया है, इसके कानूनी विवाद भविष्य में सर्वोच्च न्यायालय में और अधिक अपीलों का मार्ग भी प्रशस्त कर सकते हैं।
जैसा कि एक कानूनी कार्यकर्ता ने टिप्पणी की:
“आदेश में कुछ हिस्सों में खामियाँ हैं, लेकिन समग्र रूप से यह न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे के लिए एक गंभीर न्यायिक परीक्षा की शुरुआत है।”