बॉम्बे हाईकोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष 4 सितंबर को ऐतिहासिक सुनवाई

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बॉम्बे हाईकोर्ट की पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ 4 सितंबर को न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-देरे से संबंधित मामले की ऐतिहासिक और अभूतपूर्व सुनवाई करेगी। कार्यवाही का सीधा प्रसारण किया जाएगा और इसमें हाईकोर्ट की न्यायाधीश रेवती मोहिते-देरे के विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी करने के आवेदन पर भी विचार होगा।
शपथपत्र में भ्रष्टाचार और कदाचार के आरोप
प्रतिवादी अधिवक्ता निलेश ओझा ने (I.A. No. 3092 of 2025) के रूप में एक विस्तृत शपथपत्र दाखिल किया है। इसमें न्यायमूर्ति मोहिते-देरे के खिलाफ गंभीर और गोपनीय साक्ष्य संलग्न किए गए हैं और उनकी गिरफ्तारी एवं आपराधिक अभियोजन की प्रार्थना की गई है।
शिकायत के आधार पर कार्यवाही, कोई विशेष संरक्षण नहीं
ओझा ने उच्च न्यायालय रजिस्ट्री द्वारा उपलब्ध कराए गए पेपर बुक का हवाला दिया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि सुओ मोटो अवमानना कार्यवाही केवल न्यायमूर्ति मोहिते-देरे की व्यक्तिगत शिकायत (दिनांक 4 अप्रैल 2025) के आधार पर ही शुरू की गई है।
ओझा ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों का हवाला देते हुए बताया कि एक बार जब कोई न्यायाधीश व्यक्तिगत शिकायत करता है, तो वह शिकायतकर्ता और गवाह की श्रेणी में आ जाता है। यदि वह शिकायत झूठी पाई जाती है, तो संबंधित न्यायाधीश के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई बिना किसी पूर्व अनुमति (sanction) के की जा सकती है।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में न्यायाधीश किसी भी प्रकार के न्यायिक संरक्षण का दावा नहीं कर सकते और उन्हें किसी भी सामान्य नागरिक की तरह माना जाएगा। ऐसे में उन्हें कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होता।
शपथपत्र में उजागर प्रमुख आरोप
(i) चंदा कोचर जमानत प्रकरण में फर्जीवाड़ा
आरोप है कि क्रिमिनल रिट याचिका (स्टा.) नं. 22494/2022 में आईसीआईसीआई बैंक की पूर्व अधिकारी श्रीमती चंदा कोचर को जमानत देते समय न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-देरे ने जानबूझकर धारा 409 आईपीसी (जो आजीवन कारावास से दंडनीय है) का उल्लेख दबा दिया और अपने आदेश दिनांक 09.01.2023 में गलत तरीके से दर्ज किया कि मामले में अधिकतम सजा केवल सात वर्ष है। इस कथित फर्जीवाड़े का उद्देश्य अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) 8 SCC 273 के फैसले के दायरे में मामला लाकर जमानत देना था।
सीबीआई के रिकॉर्ड और विशेष सीबीआई न्यायाधीश के आदेश से यह असत्य सामने आ गया। आरोप है कि न्यायमूर्ति मोहिते-देरे ने चंदा कोचर को लाभ पहुँचाने के लिए विशेष सीबीआई न्यायाधीश के आदेश को अनदेखा कर दिया, जो राम प्रताप यादव बनाम मित्रा सेन यादव (2003) 1 SCC 15 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित बाध्यकारी दिशा-निर्देशों के विपरीत था।
(ii) पारिवारिक रिश्तों से हितों का टकराव – पूर्व सांसद और एनसीपी (शरद पवार गुट) की वरिष्ठ नेता सुश्री वंदना चव्हाण, न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-देरे की सगी बहन हैं.
शपथपत्र में पुख्ता सबूतों के आधार पर यह भी दर्शाया गया है कि पूर्व सांसद और एनसीपी (शरद पवार गुट) की वरिष्ठ नेता सुश्री वंदना चव्हाण, न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-देरे की सगी बहन हैं। आरोप है कि न्यायमूर्ति मोहिते-देरे ने अनेक अवसरों पर इस राजनीतिक गुट से जुड़े व्यक्तियों को अनुचित राहत दी, जबकि भाजपा सरकार से जुड़े अथवा विपक्षी विचारधारा वाले पक्षकारों के प्रति भेदभावपूर्ण और शत्रुतापूर्ण रुख अपनाया।
शपथपत्र में आगे कहा गया है कि इन आदेशों को पारित करते समय न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-देरे ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित नियमों और बाध्यकारी न्यायिक मिसालों की खुली अवमानना की और अपने पद का दुरुपयोग कर ग़ैरक़ानूनी आदेश पारित किए। ऐसी हरकतें अपने आप में भारतीय दंड संहिता की धाराओं 218, 219, 166, 167, 192, 193, 409, 120(B), 34 आदि के तहत गंभीर अपराध बनती हैं, जिनमें सज़ा आजीवन कारावास तक हो सकती है।
अधिवक्ता निलेश ओझा का कहना है कि यह पारिवारिक रिश्ता न केवल न्यायिक निष्पक्षता को गंभीर रूप से प्रभावित करता है, बल्कि राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में न्यायालय द्वारा दिए गए आदेशों की विश्वसनीयता और वैधता पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। इसके परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय की गरिमा और जनता का विश्वास निरंतर आघात पहुंच रहा है।
ओझा का तर्क है कि ऐसी स्थिति में न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-देरे के विरुद्ध भी वही कदम उठाए जाने चाहिए, जैसे न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के विरुद्ध उठाए गए थे—अर्थात्, उनके सभी न्यायिक कार्य तत्काल प्रभाव से वापस लिए जाएँ और उनके विरुद्ध महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की जाए, ताकि न्यायपालिका की गरिमा और निष्पक्षता को सुरक्षित रखा जा सके।
(iii) न्यायमूर्ति मोहिते-देरे ने अपने करीबी एनसीपी विधायक दिलीप मोहिते को जमानत प्रकरण में देने के लिए झूठ और फर्जीवाड़े का सहारा लिया.
शपथपत्र में आगे कहा गया है कि एबीए नं. 1621/2019 में एनसीपी विधायक दिलीप मोहिते को 26.07.2019 और 21.08.2019 के आदेशों से जमानत देते समय न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-देरे ने पुलिस रिपोर्ट के महत्वपूर्ण तथ्यों को दबा दिया।
विशेष रूप से यह तथ्य छिपाया गया कि आरोपी पर धारा 307 आईपीसी (हत्या का प्रयास) जोड़ी गई थी, क्योंकि उस पर पुलिस अधिकारियों की हत्या करने के प्रयास और पुलिस थाने पर हमला करके थाने को जलाने की साजिश का आरोप था।
शपथपत्र में आरोप लगाया गया है कि न्यायमूर्ति मोहिते-देरे ने अपने करीबी विधायक दिलीप मोहिते को ऐसे गंभीर मामलों में जमानत देने के लिए झूठ और फर्जीवाड़े का सहारा लिया। अपने आदेश में उन्होंने धारा 307 आईपीसी का उल्लेख जानबूझकर गायब कर दिया और पुलिस की रिपोर्ट तथा सेशंस कोर्ट के आदेश को भी छुपाकर विधायक को एंटिसिपेटरी बेल (गिरफ्तारी-पूर्व जमानत) प्रदान कर दी।
सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी हरकत को “न्यायिक बेईमानी और न्यायिक पद का दुरुपयोग (Grossest Judicial Dishonesty)” करार दिया है और स्पष्ट कहा है कि इस तरह के आचरण वाले न्यायाधीश को तुरंत बर्खास्त कर देना चाहिए। इस सिद्धांत को मुजफ्फर हुसैन बनाम यूपी राज्य (2022 SCC OnLine SC 567) तथा कमिसेट्टी पेड्डा वेंकटा सुब्बम्मा बनाम चिन्ना कुम्मागंडला वेंकटैया (2004 SCC OnLine AP 1009) में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने मान्यता प्रदान की है।
न्यायमूर्ति मोहिते-देरे की 4 अप्रैल की शिकायत झूठी और निराधार साबित
अधिवक्ता निलेश ओझा द्वारा दाखिल शपथपत्र में स्पष्ट कहा गया है कि न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-देरे की दिनांक 4 अप्रैल 2025 की शिकायत झूठी और निराधार साबित हुई है। पुलिस रिकॉर्ड, सत्र न्यायालय और सीबीआई न्यायालय के आदेशों तथा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल दस्तावेजों से शिकायत की असत्यता साफ उजागर हो चुकी है।
शपथपत्र में आरोप है कि यह शिकायत न्यायमूर्ति मोहिते-देरे ने केवल अपने विरुद्ध लंबित भ्रष्टाचार और कदाचार के गंभीर आरोपों से ध्यान हटाने और सच्चाई दबाने के लिए दर्ज कराई थी।
ओझा ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का हवाला देते हुए चेतावनी दी कि जब कोई वरिष्ठ न्यायाधीश ही झूठी शिकायत का सहारा लेता है, तो यह न केवल उसकी व्यक्तिगत साख को गिराता है, बल्कि पूरी न्यायपालिका में जनता के विश्वास को भी गहरी चोट पहुँचाता है। उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट की गरिमा बनाए रखने और नागरिकों के मन में न्यायपालिका के प्रति सम्मान बरकरार रखने के लिए ऐसे न्यायाधीश के विरुद्ध कठोर कानूनी कार्रवाई अनिवार्य है।
गिरफ्तारी वारंट और अवमानना कार्यवाही की मांग
आवेदन में यह प्रार्थना की गई है कि न्यायमूर्ति मोहिते-देरे के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया जाए, आपराधिक अभियोजन शुरू किया जाए, और साथ ही उनके खिलाफ अवमानना कार्यवाही भी चलाई जाए।
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यदि संविधान पीठ इस शिकायत को झूठा करार देती है, तो यह भारतीय न्यायिक इतिहास का एक ऐतिहासिक मोड़ होगा और इसके परिणामस्वरूप उनके खिलाफ न केवल अभियोजन, बल्कि महाभियोग और पद से हटाए जाने की प्रक्रिया भी अनिवार्य हो जाएगी।
संदेहास्पद चुप्पी
गंभीर आरोपों और ठोस दस्तावेजी साक्ष्य सामने आने के बावजूद न्यायमूर्ति मोहिते-देरे ने अब तक न तो कोई सफाई दी है और न ही कोई जवाब। उनकी यह चुप्पी संदेहास्पद मानी जा रही है और न्यायिक हलकों में चर्चा का मुख्य विषय बनी हुई है।
इसी कारण, आवाज़ें तेज़ हो रही हैं कि उन्हें महाभियोग प्रक्रिया के जरिए पद से हटाया जाए और जांच पूरी होने तक उन्हें महाराष्ट्र से बाहर पदस्थ किया जाए, ताकि जांच पर किसी प्रकार का प्रभाव न पड़े। इस मांग का समर्थन कई वरिष्ठ विधिज्ञ भी कर चुके हैं।
आगे की राह
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि 4 सितंबर की सुनवाई भारतीय न्याय व्यवस्था के तीन मूल स्तंभों की परीक्षा होगी:
· पारदर्शिता
· जन-विश्वास
· भ्रष्टाचार के खिलाफ जवाबदेही
संविधान पीठ न केवल न्यायमूर्ति मोहिते-देरे की शिकायत की सत्यता पर निर्णय करेगी, बल्कि आने वाले समय में न्यायिक जवाबदेही की दिशा भी तय करेगी।
ओझा का दो टूक बयान
अधिवक्ता निलेश ओझा ने अंत में स्पष्ट कहा:
“यदि मेरे साक्ष्य झूठे हैं तो मुझे दंडित करें, लेकिन यदि वे सत्य हैं तो न्यायमूर्ति मोहिते-देरे को किसी सामान्य नागरिक की तरह कानून का सामना करना होगा।”