टाइम्स ऑफ इंडिया और विनीत जैन की आपराधिक साजिश और फर्जी रिपोर्टिंग का पर्दाफाश

₹2 लाख करोड़ की मानहानि और भारतीय दंड संहिता की धाराओं के तहत फौजदारी कार्रवाई शुरू करने की प्रक्रिया औपचारिक रूप से आरंभ।
“इथिकल जर्नलिज़्म” का नकाब फट गया!
TOI और विनीत जैन की साजिश बेनकाब — CBI के नाम पर फर्जी रिपोर्ट, अब कोर्ट में फंसेंगे सब.
नई दिल्ली | विशेष संवाददाता
देश के सबसे बड़े मीडिया समूहों में से एक टाइम्स ऑफ इंडिया (TOI) और उसके मालिक विनीत जैन की साजिश अब देश के सामने बेनकाब हो चुकी है। TOI और उसकी मूल कंपनी बेनेट कोलमन एंड कंपनी लिमिटेड ने जानबूझकर एक झूठी रिपोर्ट छापी जिसमें यह दावा किया गया कि CBI ने दिशा सालियन की मौत के लिए उनके पिता श्री सतीश सालियन को दोषी ठहराया है।
लेकिन सच्चाई क्या है?
CBI ने आधिकारिक तौर पर साफ कह दिया है कि उन्होंने ऐसी कोई जाँच ही नहीं की और उनके रिकॉर्ड में ऐसी कोई रिपोर्ट है ही नहीं!
यानि, TOI ने CBI का नाम घसीटकर एक मनगढ़ंत कहानी गढ़ी, और एक निर्दोष पिता को देश की नजरों में बदनाम करने की साजिश की।
🔴 जुर्म पर जुर्म: पहले झूठी खबर, फिर बदली गई रिपोर्ट, अब कोर्ट को गुमराह करने की कोशिश!
मानहानि का नोटिस मिलने के बाद TOI ने चुपचाप खबर में फेरबदल किया और 18 जुलाई 2025 को अपनी वेबसाइट पर बदलाव डाल दिया, यह दिखाने की कोशिश की कि उन्होंने तो मिड-डे और हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के आधार पर खबर छापी थी।
लेकिन डिजिटल सबूतों ने इस झूठ की भी पोल खोल दी है:
28 मार्च 2025 को प्रकाशित मूल लेख में किसी भी अन्य अखबार का नाम तक नहीं था।
बाद में मैन्युपुलेटेड कंटेंट डालकर झूठे सबूत गढ़े गए, ताकि कोर्ट में जवाब देते वक्त खुद को बचाया जा सके।
यह कोई साधारण भूल नहीं, बल्कि न्यायालय को गुमराह करने और साक्ष्य से छेड़छाड़ करने जैसा संगीन अपराध है।
⚖️ IPC की धारा 192, 193 के तहत होगी कार्रवाई — मीडिया के नाम पर ‘श्वेतपोश अपराध’ नहीं चलेगा!
TOI का कानूनी उत्तर भी पूरी तरह से फर्जी साबित हुआ है। कोर्ट में जवाब देने के लिए जो बातें लिखी गईं, वे पूरी तरह बनावटी हैं। यह आचरण IPC की धारा 192 (झूठे साक्ष्य बनाना), 193 (न्यायालय में झूठा साक्ष्य देना) के तहत स्पष्ट अपराध है।
श्री सतीश सालियन के अधिवक्ता अॅड. इश्वरलाल अग्रवाल ने साफ शब्दों में कहा:
“यह केवल मानहानि नहीं, बल्कि पत्रकारिता की आड़ में किया गया एक आपराधिक षड्यंत्र है। अब TOI, उसके संपादक और संबंधित लोगों के खिलाफ दीवानी और फौजदारी – दोनों कार्यवाहियाँ शुरू होंगी।”
📢 प्रेस की आड़ में संगठित अपराध नहीं चलेगा!
यदि ऐसे सफेदपोश अपराधियों को कड़ा दंड नहीं मिला, तो पत्रकारिता का चोला पहनकर झूठ बेचने वाले और मासूमों की छवि बर्बाद करने वाले मीडिया हाउस बेलगाम हो जाएंगे।
🔴 भारत की मीडिया जवाबदेही के लिए एक ऐतिहासिक मोड़
यह केस सिर्फ एक पिता की प्रतिष्ठा का नहीं, बल्कि भारत में मीडिया की जवाबदेही और सच्चाई की रक्षा का सवाल है।
यह एक गहरे संस्थागत सड़ांध का प्रतीक बन चुका है, जहाँ प्रेस की स्वतंत्रता की आड़ में सफेदपोश अपराध (White Collar Crime) खुलेआम अंजाम दिए जा रहे हैं।
फर्जी खबरें बनाना, जालसाजी करना और तथ्यात्मक गुमराहकारी सूचनाएँ देना — अब कुछ मीडिया संस्थानों के लिए सत्ता के इशारे पर काम करने और असुविधाजनक सच्चाइयों को दबाने का नया हथियार बन गया है।
👉 यदि अदालतें कठोर सजा न दें और जनता पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व की माँग न करे, तो यह प्रवृत्ति आगे भी निर्दोष नागरिकों को निशाना बनाएगी और न्याय तथा लोकतंत्र की नींव को कमजोर करेगी।
⚖️ नागपुर सिविल कोर्ट में पहले से लंबित ₹12 लाख करोड़ की मानहानि याचिका
यह कोई पहला मामला नहीं है। जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश पोहरे ने टाइम्स ऑफ इंडिया और अन्य के खिलाफ ₹12 लाख करोड़ की मानहानि याचिका नागपुर सिविल कोर्ट में दायर की है।
🔸 कोर्ट ने TOI के निदेशकों को समन जारी कर दिया है और यदि वे बैंक गारंटी नहीं जमा करते, तो उनकी गिरफ्तारी और न्यायिक हिरासत की भी माँग की गई है।
🛑 “यह पत्रकारिता नहीं, बल्कि सफेदपोश अपराध है”
“यह केवल संपादकीय भूल नहीं है, न ही यह पत्रकारिता में एक असाधारण चूक है — बल्कि यह एक सुनियोजित और पूर्व-निर्धारित अभियान है, जो पूरी तरह से white collar criminality के लक्षण दर्शाता है।
जब कोई मीडिया हाउस पैसों के बदले झूठे नैरेटिव प्रकाशित करता है, बिना तथ्य-जांच के फर्जी खबरें फैलाता है, और जब उसका पर्दाफाश होता है तो डिजिटल रिकॉर्ड में हेरफेर कर और झूठे कानूनी बहाने बनाकर खुद को बचाने की कोशिश करता है — तो वह अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ता है और संगठित धोखाधड़ी का उपकरण बन जाता है।”
⚖️ जब यही झूठे तथ्य कानूनी जवाबों में पेश किए जाएं…
यह तब और भी गंभीर हो जाता है जब ये फर्जी तथ्य अदालत में ‘वैध बचाव’ के रूप में लिखित कानूनी उत्तर बनाकर प्रस्तुत किए जाते हैं।
🔺 यह केवल मानहानि नहीं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया में सीधा हस्तक्षेप, न्यायपालिका को गुमराह करने का प्रयास और कानून के शासन का अपमान है।
❗ प्रेस की गरिमा में छिपी साजिश
यह पत्रकारिता नहीं है — यह प्रेस की गरिमा के पीछे छिपकर किया गया सफेदपोश अपराध है।
⚠️ इसे रणनीतिक दुर्भावना, डिजिटल हेरफेर और कानूनी धोखे के साथ अंजाम दिया गया है — जिसका उद्देश्य जनहित को जागरूक करना नहीं, बल्कि असली अपराधियों को बचाना, निर्दोषों को बदनाम करना और जनमत तथा न्याय व्यवस्था दोनों को प्रभावित करना है।
👨⚖️ यदि सख्त कार्यवाही नहीं हुई, तो यह प्रवृत्ति और बढ़ेगी
अगर इस तरह की कुटिल पत्रकारिता पर तत्काल और मिसाल कायम करने वाली कानूनी कार्यवाही नहीं की गई, तो यह एक खतरनाक उदाहरण पेश करेगा — जिसमें मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं, बल्कि दोषियों के लिए सुरक्षा कवच बन जाएगा।
📌 “दूसरी रिपोर्ट पर आधारित था” — यह कोई कानूनी बचाव नहीं
भारतीय कानून इस विषय में पूर्णतः स्पष्ट है —
🔹 कोई भी प्रकाशन यह कहकर उत्तरदायित्व से नहीं बच सकता कि उसने केवल किसी और की रिपोर्ट दोहराई।
👉 जिस मीडिया संस्थान के नाम से खबर प्रकाशित होती है, उसके पास पूरी कानूनी और नैतिक जिम्मेदारी होती है कि वह अपने द्वारा प्रकाशित सामग्री की सच्चाई और प्रमाणिकता सुनिश्चित करे।