सच बाहर लाने के लिए हायकोर्ट जज के आर श्रीराम को कटघरे मे बुलाकर उनसे पूछताछ करना जरुरी।
अनिल गिडवानी के वकील एडवोकेट निलेश ओझा ने पेश किए कानूनी प्रावधान और केस लॉ।
एडवोकेट जनरल को जवाब देने का चीफ जस्टिस का आदेश।
कोर्ट अवमानना कानून 1971 के किसी भी धारा का उल्लंघन नहीं कर सकता हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट।
अँड प्रशांत भूषण और अँड विजय कूर्ले के मामले मे सुप्रीम कोर्ट की छोटी बेंच द्वारा दिया गया फैसला गैरकानूनी है क्योकि उसमे संविधान पीठ और अन्य नियमो की अनदेखी की गई है।
एडवोकेट ओझा ने दिया सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के आदेश का हवाला।
अगर किसी नागरिक को बिना आरोप तय कीये और उसे अपना बचाव पक्ष रखने दिए बगैर कोर्ट अवमानना में सजा दी गई है तो यह उस व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन माना जाएगा और जज की गलती के लिए सरकार उसे हर्जाना/मुआवजा/ नुकसान भरपाई (Compensation) देने को बाध्य है ऐसा कानूनी प्रावधान है।
हाय कोर्ट जज श्रीराम को अनिल गिड़वाणी द्वारा लोकसेवक (Public Servant) हो तो सेवक की तरह काम करो ऐसा कहने के लिए अनिल गिड़वाणी के खिलाफ चल रहा हैं कोर्ट अवमानना का मामला।
मुंबई :- बॉम्बे हाय कोर्ट मे एक केस कि सूनवाई के दौरान वरिष्ठ नागरिक तथा आय टी तज्ञ श्री अनिल गिडवाणी ने हाय कोर्ट जज श्री. के. आर. श्रीराम को यह कह दिया की ‘आप जनता के सेवक हो तो सेवक की तरह काम करो ‘इस बात पर जस्टीस श्रीराम ने अनिल गिडवाणी को शाम 5 बजे तक के लिए हिरासत मे लेने का आदेश पुलिस को दिया और बाद मे उनके खिलाफ कोर्ट अवमानना की कारवाई शुरु की।
वह मामला हाय कोर्ट के चीफ जस्टीस गंगापूरवाला के पास सुनवाई के लिए आया. सुनवाई के दौरान अनिल गिडवाणी ने मांग की कि मामले मे आरोप निश्चित किये जाए और जस्टीस श्रीराम को गवाह के तौर पर कटघरे मे बुलाया जाए ताकी उनसे पुछताछ (सवाल-जवाब) करके सत्य को कोर्ट के सामने लाया जा सके. उनकी इस मांग का विरोध राज्य के महाधिवक्ता (अँडवोकेट जनरल) बिरेन्द्र सराफ ने किया।
महाधिवक्ता ने अँड. विजय कुर्ले (Vijay Kurle & Ors 2020 SCC OnLine SC 407) मामले मे कानून का हवाला देते हुए कहा की हाय कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को कोई नियम लागू नही होते है और वे बिना किसी प्रक्रिया या नियम का पालन करे किसी भी व्यक्ति को सजा दे सकते हैं।
गैरतलब हैं की सुप्रीम कोर्ट के जस्टीस दीपक गुप्ता की दो सदस्यीय बेंच ने Vijay Kurle, In re, 2020 SCC OnLine SC 407 मामले मे निर्णय देते समय दूसरे दो सदस्यीय बेंच के निर्णय प्रीतम पाल का हवाला देते हुए यह कहा था की उन्हे कोई नियम और कानून लागू नही होते है और वे किसी को भी मतलब नागरिक, वकील, अधिकारी, मंत्रियों, मिडियाकर्मी इत्यादी सभी को अपने खुदके नियम कानून बनाकर सजा दे सकते है. यह आदेश गैरकानूनी इसलिए है क्योकि Pritam Pal v. High Court of M.P., 1993 Supp (1) SCC 529 वाले आदेश को सुप्रीम कोर्ट के तीन जज की बेंच ने Bal Thackrey Vs. Harish Pimpalkhute (2005) 1 SCC 454 मामले मे निरस्त (overrule) कर गैरकानूनी घोषित कर दीया था।
इसके आलावा देश के कई उच्च न्यायालयो मे भी प्रीतम पाल केस मे बनाये गये कानून को गलत बताकर उसे मानने से मना कर दीया था क्योकि उसी मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ बेंच के Pallav Sheth v. Custodian, (2001) 7 SCC 549, Dr. L.P. Misra v. State of U.P., (1998) 7 SCC 379 जैसे मामले के कानून यह प्रीतम पाल मामले के कानून को गैरकानूनी साबीत करते है.
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने Sahara India Real Estate Corpn. Ltd. v. SEBI, (2012) 10 SCC 603 मामले मे या स्पष्ट किया है कोईभी न्यायालय ‘कोर्ट अवमानना कानून 1971’ के प्रावधानों के बाहर जा कर कोई भी आदेश नही दे सकता और जहा पर कानूनी प्रावधान नही है केवल वही पर वह अपना विशेषाधिकार (discretion) इस्तेमाल कर सकता है.
उस मामले मे ‘वरिष्ठ अधिवक्ता सोलि सोराबजी’ की पैरवी को सुप्रीम कोर्ट ने सही माना सोली सोराबजी ने यह तर्क दिया था की कोर्ट अवमानना कानून के नियम एवम प्रावधानों के खिलाफ कोई भी आदेश पारित नही किया जा सकता. ऍड. सोली सोराबजी की उस बात को भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश मे लिखा जिसमे यह कहा गया है कि “कोर्ट अवमानना कानून 1971” की धारा 12 मे जो सजा निश्चित की गई है उसके बाहर जाकर कोई भी आदेश अगर सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट देता है तो कोर्ट उस व्यक्ति को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 धारा दिये गये मूलभूत अधिकारो का हनन कर रहा है.
ॲड. ओझा ने कोर्ट को बताया की अगर Vijay Kurle, In re, 2020 SCC OnLine SC 407 मे बनाये गये कानून और एडवोकेट जनरल की बात मान ली जाय की हाय कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को संसद द्वारा बनाये गए कोई भी नियम या कानून का बंधन नहीं है तो कल कोई भी जज केवल उसे पसंद नहीं है ऐसा कोई भी काम करनेवाले या अलग रंग का पेन क्यू इस्तेमाल किया ऐसा कुछ भी कारण बताकर नागरिक/ वकिल को फ़ासी की सजा भी सुना सकता है ऐसा Khemchand Agrawal v. Commissioner Irrigation 2004 SCC OnLine Ori. 119, मामले मे कहा गया हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने बार बार कहा है और अपने देश के संविधान तधा देशो नागरिको को युनो (UNO) द्वारा बनाये गये कानून Universal Declaration or Human Right तथा International Covenant on Civil and Political Rights के तहत प्राप्त अधिकारों मे भी यह स्पष्ट प्रावधान है की जिस ने आरोप लगाये है, वह आरोप साबीत करने की जिम्मेदारी भी उसी की है. [One who asserts must prove] [Mrityunjoy Das and Ors v. Sayed Hasibur Rahaman and Ors (2001) 3 SCC 739, P. Mohanraj Vs Shah Brothers Ispat Pvt LTD (2021) 6 SCC 258 ]
इसीलिए बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टीस श्रीराम को कटघरे मे आना होगा और उससे पूछताछ (Cross-examination) करके खुद को निर्दोष साबित करने का अधिकार जिस पर आरोप है उसे प्राप्त है।
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजेस को ऐसे मामलो मे कई बार एक गवाह के रूप बुलाया जा चूका है. [ Suo Motu v. Santy George, 2020 SCC OnLine Ker 563, B. K. Kar Vs. The Chief Justice AIR 1961 SC 1367, R. Viswanathan Vs Rukn-ul-Mulk Syed Abdul Wajid AIR 1963 SC 1, Woodward Vs. Waterbury 155 A. 825, Regina Vs Kopyto (1987) 39 CCC (3d) 1] चीफ जस्टीस ने अपने 15.03.2023 के आदेश मे एडवोकेट जनरल को इस मुददे पर अपना पक्ष रखने का आदेश दिया है।
अधिक जानकारी के लिए इंडियन बार असोसिएशन की वेबसाईट देखे।